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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 3: श्रीशिव तथा सती का संवाद  »  श्लोक 9
 
 
श्लोक  4.3.9 
तस्मिन्भगिन्यो मम भर्तृभि: स्वकै-
र्ध्रुवं गमिष्यन्ति सुहृद्दिद‍ृक्षव: ।
अहं च तस्मिन्भवताभिकामये
सहोपनीतं परिबर्हमर्हितुम् ॥ ९ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मिन्—उस यज्ञ में; भगिन्य:—बहनें; मम—मेरी; भर्तृभि:—अपने-अपने पतियों सहित; स्वकै:—अपनी ओर से; ध्रुवम्— निश्चय ही; गमिष्यन्ति—जाएंगी; सुहृत्-दिदृक्षव:—अपने परिजनों से भेंट करने की इच्छुक; अहम्—मैं; —तथा; तस्मिन्— उस उत्सव में; भवता—आपके (शिव के) साथ; अभिकामये—इच्छा करती हूँ; सह—साथ; उपनीतम्—प्रदत्त; परिबर्हम्— आभूषण; अर्हितुम्—स्वीकार करने ।.
 
अनुवाद
 
 मैं सोचती हूँ कि मेरी सभी बहनें अपने सम्बन्धियों से भेंट करने की इच्छा से अपने-अपने पतियों सहित इस महान् यज्ञ में अवश्य आयी होंगी। मैं भी अपने पिता द्वारा प्रदत्त आभूषणों से अपने को अलंकृत करके आपके साथ उस उत्सव में भाग लेने की इच्छुक हूँ।
 
तात्पर्य
 यह स्त्रियों का स्वभाव है कि वे आभूषणों तथा वस्त्रों से अलंकृत होकर अपने पतियों के साथ सामाजिक उत्सवों में जाना चाहती हैं, वहाँ अपने इष्ट मित्रों तथा सम्बन्धियों में मिलती हैं और इस प्रकार जीवन का आनन्द उठाती हैं। यह कोई विलक्षणता नहीं है, क्योंकि भौतिक सुख का मूलाधार स्त्रियाँ हैं। इसीलिए संस्कृत में स्त्री शब्द प्रयुक्त मिलता है, जिसका अर्थ है “वह जो भौतिक सुखोपभोग के क्षेत्र को विस्तारित कर देती है।” भौतिक जगत में स्त्री तथा पुरुष के मध्य आकर्षण होता है। बद्धजीवन की यही व्यवस्था है। स्त्री पुरुष को आकृष्ट करती है और इस प्रकार से सांसारिकता, जिसमें घर, सम्पत्ति, सन्तान, मित्रता इत्यादि सम्मिलित हैं, बढ़ती जाती है और भौतिक आवश्यकताएँ घटने के बजाय बढ़ती ही जाती हैं और मनुष्य भौतिक भोग में फँस जाता है। किन्तु भगवान् शिव भिन्न हैं; इसीलिए उनका नाम शिव है। वे भौतिक भोग से आकृष्ट नहीं होते, यद्यपि उनकी पत्नी सती एक महान् जननायक (प्रजापति) की पुत्री थी और ब्रह्मा के कहने पर शिव को दी गई थी। शिव को कोई चाह न थी, किन्तु राजा की कन्या होने के नाते सती सुखोपभोग चाहती थी। वह भी अपनी अन्य बहनों के समान अपने पिता के घर जाना चाहती थीं और वहाँ सबसे मिलकर सामाजिक जीवन का आनन्द उठाना चाह रही थी। यहाँ पर उसने विशेष रूप से संकेत किया है कि वह अपने पिता से प्राप्त आभूषण पहन कर सुसज्जित होना चाहती है। उसने यह नहीं कहा कि वह पति से प्राप्त गहने पहनकर सुसज्जित होना चाहती है, क्योंकि उसके पति इन सभी मामलों के प्रति उदासीन थे। उन्हें इसका ज्ञान नहीं था कि पत्नी को किस प्रकार सजाकर उत्सवों में भाग लेना चाहिए, क्योंकि वे तो भगवान् के भावों में ही निमग्न रहते थे। वैदिक प्रथा के अनुसार कन्या को विवाह के समय दहेज दिया जाता है, अत: सती को भी अपने पिता से दहेज प्राप्त हुआ था जिसमें आभूषण (गहने) भी थे। यह भी प्रथा है कि पति भी कुछ आभूषण देता है, किन्तु यहाँ पर इसका विशेष उल्लेख है कि सती का पति भौतिक सम्पत्ति में शून्य-प्राय होने के कारण कुछ नहीं दे सका था, इसीलिये वह अपने पिता द्वारा प्रदत्त आभूषणों से अपने को अलंकृत करना चाह रही थी। यह तो सती का सौभाग्य था कि पति ने उसके गहने गाँजा खरीदने में नहीं फूँक दिये थे, क्योंकि जो गाँजा पीने में शिव का अनुसरण करते हैं, वे गृहस्थी को चौपट कर देते हैं। वे अपनी पत्नियों की सभी सम्पत्ति को बेचकर गाँजा पीने नशा करने तथा ऐसी ही दूसरी आदतों में खर्च कर देते हैं।
 
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