यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग: समाचर ॥ “श्रीविष्णु के लिए यज्ञ रूप में कर्म करना अनिवार्य है, अन्यथा कर्म मनुष्य को इस जगत से बाँध लेता है। अत: हे कुन्तीपुत्र! उनकी प्रसन्नता के लिए संस्तुत कार्य करो और इस प्रकार करने से तुम सदा अनासक्त तथा बन्धन से मुक्त रहोगे।” मनुष्य यज्ञ पुरुष भगवान् को प्रसन्न करने के लिए अपने कर्तव्यों के अनुसार कार्य कर सकता है। यही अपृथग्धर्म कहलाता है। शरीर के विभिन्न अंग भिन्न-भिन्न प्रकार से कार्य कर सकते हैं, किन्तु मूल उद्देश्य तो सम्पूर्ण शरीर का पालन होता है। इसी प्रकार यदि हम भगवान् को प्रसन्न करने के लिए कार्य करें तो हम देखेंगे कि सबों को प्रसन्न किया जा सकता है। हमें प्रचेताओं का अनुसरण करना चाहिए जिनका एकमात्र उद्देश्य परमेश्वर को प्रसन्न करना था। यही अपृथग्धर्म कहलाता है। भगवद्गीता के अनुसार (१८.६६)—सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज—सभी प्रकार के धर्मों को त्याग कर मेरी शरण ग्रहण करो। श्रीकृष्ण का यही उपदेश है। हमारा एकमात्र उद्देश्य भगवान् को प्रसन्न करना है। यही एकत्व या अभिन्नता अथवा अपृथग्धर्म है। |