पृथिवीते आछे यत नगरादि ग्राम। सर्वत्र प्रचार हैबे मोर नाम ॥ चैतन्य महाप्रभु चाहते थे कि उनके अनुयायी संसार-भर में प्रत्येक नगर तथा ग्राम में प्रचार के लिए जाँय। चैतन्य-सम्प्रदाय के जो लोग भगवान् चैतन्य के सिद्धान्तों का दृढ़ता से पालन करते हैं उन्हें भगवान् चैतन्य के सन्देश को, जो श्रीकृष्ण के वचन—भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत—ही है, विश्व भर में प्रचार करने के लिए भ्रमण करना होता है। भक्तगण जितना ही कृष्णकथा के सिद्धान्तों का उपदेश करेंगे, उतना ही संसार-भर के लोग लाभान्वित होंगे। नारद मुनि जैसे भक्त, जो प्रचारार्थ सर्वत्र घूमते हैं, गोष्ठानन्दी कहलाते हैं। नारद मुनि ब्रह्माण्ड-भर में विभिन्न प्रकार के भक्त उत्पन्न करने के लिए सदैव विचरण करते रहते हैं। नारद मुनि ने तो बहेलिये तक को भक्त बना लिया था। उन्होंने ध्रुव तथा प्रह्लाद को भी भक्त बनाया। वस्तुत: सारे भक्त नारद मुनि के ऋणी हैं, क्योंकि वे स्वर्ग तथा नरक दोनों में विचरण कर चुके थे। भगवद्भक्त नरक से भी नहीं डरता। वह सर्वत्र, यहाँ तक कि नरक में भी, भगवान् की महिमा का प्रचार करने के लिए जाता है क्योंकि भक्त की दृष्टि में स्वर्ग तथा नरक में कोई अन्तर नहीं रहता। नारायणपरा: सर्वे न कुतश्चन बिभ्यति। स्वर्गापवर्गनरकेष्वपि तुल्यार्थदर्शिन: ॥ “नारायण का शुद्ध भक्त कहीं भी जाने से डरता नहीं। उसके लिए स्वर्ग तथा नरक समान हैं।” (भागवत ६.१७.२८)। ऐसे भक्त सर्वत्र घूम कर इस भौतिक संसार से डरने वालों का उद्धार करते रहते हैं। कुछ लोग भौतिक भोगों से हताश तथा दिग्भ्रमित होने के कारण पहले से ही इस संसार से ऊबे हैं और कुछ लोग, जो बुद्धिमान हैं, परमेश्वर को जानने में रुचि रखते हैं। ये दोनों ही तरह के लोग संसार-भर में विचरण करने वाले शुद्ध भक्त से लाभ उठा सकते हैं। जब कोई शुद्ध भक्त किसी तीर्थस्थान में जाता है, तो उसके मन में उसे शुद्ध करने की अभिलाषा होती है। अनेक पापी तीर्थस्थानों में स्नान करते हैं। वे गंगा तथा यमुना नदियों के जल में प्रयाग, वृन्दावन तथा मथुरा जैसे स्थानों में स्नान करते हैं। इस प्रकार पापी मनुष्य शुद्ध होते हैं, किन्तु उनके पापपूर्ण कर्म तथा उनके फल तीर्थस्थानों में रह जाते हैं। अत: जब कोई भक्त ऐसे तीर्थस्थानों में स्नान करने आता है, तो पापियों द्वारा छोड़े हुए पापपूर्ण कर्मफलों का निराकरण हो जाता है। तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्त:स्थेन गदाभृता (भागवत १.१३.१०)। चूँकि भक्त के हृदय में सदैव भगवान् विराजमान रहते हैं, अत: वह जिस किसी स्थान में जाता है, वह तीर्थस्थान बन जाता है, जो कि भगवान् को समझने का पवित्र स्थान होता है। अत: प्रत्येक व्यक्ति का धर्म है कि वह शुद्ध भक्त की संगति करे और भव-कल्मष से छुटकारा पा ले। प्रत्येक व्यक्ति को विचरण करने वाले भक्तों से लाभ उठाना चाहिए, क्योंकि इन भक्तों का एकमात्र कार्य बद्धजीवों को माया के चंगुल से छुड़ाना है। |