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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 30: प्रचेताओं के कार्यकलाप  »  श्लोक 42
 
 
श्लोक  4.30.42 
नम: समाय शुद्धाय पुरुषाय पराय च ।
वासुदेवाय सत्त्वाय तुभ्यं भगवते नम: ॥ ४२ ॥
 
शब्दार्थ
नम:—नमस्कार; समाय—सर्वसम को; शुद्धाय—जो कभी पाप कर्मों द्वारा दूषित नहीं होता; पुरुषाय—परम पुरुष को; पराय—दिव्य; —भी; वासुदेवाय—सर्वत्र रहने वाले को; सत्त्वाय—उसे जो दिव्य पद को प्राप्त है; तुभ्यम्—तुमको; भगवते—भगवान् को; नम:—नमस्कार ।.
 
अनुवाद
 
 हे भगवन्, आपके न तो शत्रु हैं न मित्र। अत: आप सबों के लिए समान हैं। आप पापकर्मों के द्वारा कलुषित नहीं होते और आपका दिव्य रूप सदैव भौतिक सृष्टि से परे है। आप पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं, क्योंकि आप सर्वव्यापी हैं, अत: आप वासुदेव कहलाते हैं। हम आपको सादर नमस्कार करते हैं।
 
तात्पर्य
 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् वासुदेव कहलाते हैं क्योंकि वे सर्वत्र निवास करते हैं। वस शब्द का अर्थ है “बसना या निवास करना।” जैसाकि ब्रह्म-संहिता में कहा गया है—एकोऽप्यसौ रचयितुं जगदण्डकोटिम्—भगवान् अपने स्वांशों द्वारा प्रत्येक ब्रह्माण्ड में प्रवेश करके भौतिक सृष्टि की रचना करते हैं। वे प्रत्येक जीव के हृदय में तथा प्रत्येक परमाणु में भी प्रवेश करते हैं (परमाणुचयान्तरस्थ )। सर्वत्र रहने के कारण भगवान् वासुदेव कहलाते हैं। इस संसार में सर्वत्र रहते हुए भी वे प्रकृति के गुणों से कलुषित नहीं होते। अत: ईशोपनिषद् में भगवान् को अपापविद्धम् कहा गया है। वे प्रकृति के गुणों से कभी भी प्रभावित नहीं होते। जब भगवान् इस लोक में अवतरित होते हैं, तो वे अनेक प्रकार के कार्य करते हैं। वे असुरों को मारते हैं और ऐसे कार्य करते हैं जिनकी अनुमति वेद नहीं देते अर्थात् जिन्हें पापपूर्ण माना जाता है। यद्यपि वे इस प्रकार के कार्य करते हैं, किन्तु अपने कर्म से वे दूषित नहीं होते। इसीलिए यहाँ पर उन्हें शुद्ध कहा गया है। भगवान् सम भी हैं। इस सम्बन्ध में भगवद्गीता (९.२९) का कथन है—समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:—भगवान् का न कोई मित्र है, न कोई शत्रु। वे सबों के लिए समान (सम) हैं।

सत्त्वाय शब्द सूचित करता है कि भगवान् का स्वरूप भौतिक नहीं है। यह सच्चिदानन्दविग्रह: है—ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्दविग्रह:। उनका शरीर हमारे भौतिक शरीर से भिन्न होता है। कोई यह न सोचे कि भगवान् के भी हमारे जैसा भौतिक शरीर है।

 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥