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अध्याय 31: प्रचेताओं को नारद का उपदेश |
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श्लोक 1: महान् सन्त मैत्रेय ने आगे कहा : तत्पश्चात् प्रचेता हजारों वर्षों तक घर में रहे और आध्यात्मिक चेतना में पूर्ण ज्ञान विकसित किया। अन्त में उन्हें भगवान् के आशीर्वादों की याद आई और वे अपनी पत्नी को अपने सुयोग्य पुत्र के जिम्मे छोडक़र घर से निकल पड़े। |
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श्लोक 2: प्रचेतागण पश्चिम दिशा में समुद्रतट की ओर गये जहाँ जाजलि ऋषि निवास कर रहे थे। उन्होंने वह आध्यात्मिक ज्ञान पुष्ट कर लिया जिससे मनुष्य समस्त जीवों के प्रति समभाव रखने लगता है। इस तरह वे कृष्णभक्ति में पटु हो गये। |
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श्लोक 3: योगासन का अभ्यास कर लेने पर प्रचेताओं ने प्राणवायु, मन, वाणी तथा बाह्य दृष्टि को वश में करना सीख लिया। इस तरह प्राणायाम विधि से वे भौतिक आसक्ति से पूर्ण रूप से मुक्त हो गये। सीधे बैठकर वे परब्रह्म में अपने मन को केन्द्रित कर सके। जब वे यह प्राणायाम कर रहे थे तो देवताओं तथा असुरों दोनों द्वारा पूजित वन्दित नारद मुनि उन्हें देखने आये। |
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श्लोक 4: प्रचेताओं ने ज्योंही देखा कि नारद मुनि आये हुए हैं, वे नियमानुसार तुरन्त अपने आसनों से खड़े हो गये। यथा अपेक्षित तुरन्त उन्हें नमस्कार किया तथा उनकी पूजा करने लगे और जब उन्होंने देखा कि वे ठीक से आसन ग्रहण कर चुके हैं, तो उन्होंने उनसे प्रश्न पूछना प्रारम्भ किया। |
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श्लोक 5: सभी प्रचेता नारद मुनि को सम्बोधित करने लगे: हे ऋषि, हे ब्राह्मण, आशा है कि आपको यहाँ आने में किसी प्रकार की बाधा नहीं हुई होगी। यह हमारा परम सौभाग्य है कि हमें आपके दर्शन हो रहे हैं। सूर्य के चलने से लोग रात के अंधकार के भय से मुक्ति पाते हैं—यह भय चोरों तथा उचक्कों से उत्पन्न होता है। उसी प्रकार आपका भ्रमण सूर्य के ही समान है, क्योंकि आप समस्त प्रकार के भय को भगाने वाले हैं। |
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श्लोक 6: हे स्वामी, हम आपको बता दें कि गृहस्थी में अत्यधिक आसक्त रहने के कारण हम शिवजी तथा भगवान् विष्णु से प्राप्त उपदेशों को प्राय: भूल चुके हैं। |
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श्लोक 7: हे स्वामी, हमें दिव्य ज्ञान से प्रकाशित कीजिये जो उस प्रकाश स्तम्भ की तरह कार्य कर सके जिससे हम अविद्या रूपी संसार-सागर को पार कर सकें। |
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श्लोक 8: ऋषि मैत्रेय ने आगे कहा : हे विदुर, प्रचेताओं द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर भगवान् के विचारों में निरन्तर लीन रहने वाले परम भक्त नारद ने उत्तर दिया। |
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श्लोक 9: महर्षि नारद ने कहा : जब कोई जीवात्मा परम नियन्ता भगवान् की भक्ति करने के लिए जन्म लेता है, तो उसका जन्म, उसके सारे सकाम कर्म, उसकी आयु, उसका मन तथा उसकी वाणी सभी यथार्थ में सिद्ध हो जाते हैं। |
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श्लोक 10: सुसंस्कारी मनुष्य के तीन प्रकार के जन्म होते हैं। पहला जन्म शुद्ध माता-पिता से होता है, जिसे वीर्य द्वारा जन्म (शौक्र) कहते हैं। दूसरा जन्म गुरु से दीक्षा लेते समय होता है और यह ‘सावित्र’ कहलाता है। तीसरा जन्म ‘याज्ञिक’ कहलाता है और यह भगवान् विष्णु की पूजा का अवसर मिलने पर होता है। ऐसे जन्म लेने के अवसर प्राप्त होने पर भी यदि किसी को किसी देवता की भी आयु मिल जाये और वह वस्तुत: भगवान् की सेवा में रत न हो तो सब कुछ व्यर्थ हो जाता है। इसी प्रकार कर्म चाहे सांसारिक हों या आध्यात्मिक, यदि वे भगवान् को प्रसन्न करने हेतु न हों तो वे व्यर्थ हैं। |
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श्लोक 11: भक्ति के बिना कठिन तपस्या, सुनने, बोलने की शक्ति, चिन्तन शक्ति, उच्च ज्ञान, बल तथा इन्द्रियों की शक्ति का कोई अर्थ नहीं रह जाता। |
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श्लोक 12: जो दिव्य विधिविधान पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का साक्षात्कार कराने में सहायक नहीं होते, वे व्यर्थ हैं, चाहे वह योगाभ्यास हो या पदार्थ का वैश्लेषिक अध्ययन, कठिन तपस्या, संन्यास ग्रहण करना या कि वैदिक साहित्य का अध्ययन हो। भले ही ये आध्यात्मिक प्रगति के महत्त्वपूर्ण पक्ष क्यों न हों, किन्तु जब तक कोई भगवान् हरि को नहीं जान लेता ये सारी विधियाँ व्यर्थ हैं। |
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श्लोक 13: यथार्थ रूप में भगवान् ही समस्त आत्म-साक्षात्कार के मूल स्रोत हैं। फलत: समस्त शुभ कार्यों—कर्म, ज्ञान, योग तथा भक्ति—का लक्ष्य भगवान् हैं। |
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श्लोक 14: जिस तरह वृक्ष की जड़ को सींचने से तना, शाखाएँ तथा टहनियाँ पुष्ट होती हैं और जिस तरह पेट को भोजन देने से शरीर की इन्द्रियाँ तथा अंग प्राणवान् बनते हैं उसी प्रकार भक्ति द्वारा भगवान् की पूजा करने से भगवान् के ही अंग रूप सभी देवता स्वत: तुष्ट हो जाते हैं। |
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श्लोक 15: वर्षा काल में सूर्य से जल उत्पन्न होता है और कालक्रम में अर्थात् ग्रीष्मकाल में वही जल सूर्य द्वारा पुन: सोख लिया जाता है। इसी प्रकार समस्त चर तथा अचर जीव इस पृथ्वी से उत्पन्न होते हैं और कुछ काल के पश्चात् वे पुन: पृथ्वी में धूल के रूप में मिल जाते हैं। इसी प्रकार से प्रत्येक वस्तु श्रीभगवान् से उद्भूत होती है और कालक्रम से पुन: उन्हीं में लीन हो जाती है। |
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श्लोक 16: जिस प्रकार सूर्य-प्रकाश सूर्य से अभिन्न है, उसी प्रकार यह दृश्य जगत भी भगवान् से अभिन्न है। अत: भगवान् इस भौतिक सृष्टि के भीतर सर्वत्र व्याप्त हैं। जब इन्द्रियाँ चेतन रहती हैं, तो वे शरीर के अंगस्वरूप प्रतीत होती हैं, किन्तु जब शरीर सोया रहता है, तो सारी क्रियाएँ अव्यक्त होती हैं। इसी प्रकार सारा दृश्य जगत भिन्न प्रतीत होने पर भी परम पुरुष से अभिन्न है। |
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श्लोक 17: हे राजाओ, आकाश में कभी बादल, कभी अंधकार और कभी प्रकाश रहता है। इनका प्राकट्य एक क्रम से होता रहता है। इसी तरह सतो, रजो तथा तमोगुण परब्रह्म में क्रमश: शक्ति रूप में प्रकट होते हैं। कभी वे प्रकट होते हैं, तो कभी लुप्त होते हैं। |
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श्लोक 18: चूँकि परमेश्वर समस्त कारणों के कारण हैं, अत: वे समस्त जीवों के परमात्मा हैं और वे निकटवर्ती तथा सुदूर कारण हैं। चूँकि वे भौतिक प्रसर्जनों से विलग हैं, अत: वे उनकी अन्योन्य क्रियाओं से मुक्त हैं और प्रकृति के स्वामी हैं। अत: तुम्हें उनसे गुणात्मक रूप से अपने आपको अभिन्न मानते हुए उनकी सेवा करनी चाहिए। |
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श्लोक 19: समस्त जीवों पर दया करने से, येन-केन प्रकार से सन्तुष्ट रहने से तथा इन्द्रियों को वश में करने से मनुष्य भगवान् जनार्दन को बहुत शीघ्र संतुष्ट कर सकता है। |
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श्लोक 20: समस्त इच्छाओं के दूर हो जाने से भक्तगण समस्त मानसिक विकारों (कल्मष) से मुक्त हो जाते हैं। इस तरह वे भगवान् का निरन्तर चिन्तन कर सकते हैं और उनको भावपूर्वक सम्बोधन कर सकते हैं। भगवान् अपने को अपने भक्तों के वश में जानते हुए उन्हें क्षण भर के लिए भी नहीं छोड़ते, जिस प्रकार सिर के ऊपर का आकाश कभी अदृश्य नहीं होता। |
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श्लोक 21: भगवान् उन भक्तों को अत्यन्य प्रिय होते हैं जिनके पास कोई भौतिक सम्पत्ति नहीं है, किन्तु जो भगवद्भक्ति को ही अपना धन मानकर प्रसन्न रहते हैं। दरअसल, भगवान् ऐसे भक्तों के भक्ति-कार्यों का आनन्द लेते हैं। जो लोग अपनी शिक्षा, सम्पत्ति, कुलीनता और सकाम कर्म इत्यादि भौतिक वस्तुओं के मद से फूले रहते हैं, वे कभी-कभी भक्तों का उपहास करते हैं। ऐसे लोग यदि भगवान् की पूजा करते भी हैं, तो वे उसे कभी स्वीकार नहीं करते। |
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श्लोक 22: यद्यपि श्रीभगवान् आत्मनिर्भर हैं, किन्तु वे भक्तों पर आश्रित हो जाते हैं। वे न तो लक्ष्मी जी की परवाह करते हैं और न उन राजाओं तथा देवताओं की जो लक्ष्मी जी के कृपाभाजन बनना चाहते हैं। ऐसा कौन व्यक्ति होगा जो वास्तव में कृतज्ञ होते हुए भगवान् की पूजा न करे? |
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श्लोक 23: मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा : हे विदुर, इस प्रकार ब्रह्मा के पुत्र नारद मुनि ने प्रचेताओं से भगवान् के साथ इन सम्बन्धों का वर्णन किया। तत्पश्चात् वे ब्रह्मलोक को चले गये। |
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श्लोक 24: नारद के मुख से संसार के समस्त दुर्भाग्य को दूर करने वाली भगवान् की महिमा को सुन कर प्रचेता गण भी भगवान् के प्रति आसक्त हो उठे। वे भगवान् के चरणकमलों का ध्यान करते हुए चरम गन्तव्य को चले गये। |
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श्लोक 25: हे विदुर, मैंने तुम्हें वह सब कुछ सुना दिया है, जो तुम नारद तथा प्रचेताओं के भगवत्कथा सम्बन्धी वार्तालाप के विषय में जानना चाह रहे थे। जहाँ तक सम्भव था मैंने तुम्हें बता दिया है। |
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श्लोक 26: शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे श्रेष्ठ राजन् (राजा परीक्षित), यहाँ तक मैंने स्वायम्भुव मनु के प्रथम पुत्र उत्तानपाद के वंश का वर्णन किया है। अब मैं स्वायंभुव मनु के द्वितीय पुत्र प्रियव्रत के वंशजों के कार्यकलापों का वर्णन करने का प्रयास करूँगा। कृपया ध्यानपूर्वक सुनें। |
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श्लोक 27: यद्यपि महाराज प्रियव्रत ने नारद मुनि से उपदेश प्राप्त किया था, तो भी वे पृथ्वी पर राज्य करने में संलग्न हुए। भौतिक सम्पत्ति का पूर्ण भोग कर चुकने के बाद उन्होंने उसे अपने पुत्रों में बाँट दिया। तब उन्हें वह पद प्राप्त हुआ जिससे वे भगवद्धाम को लौट सके। |
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श्लोक 28: हे राजन्, इस प्रकार मैत्रेय मुनि से भगवान् तथा उनके भक्तों की दिव्य कथाएँ सुनकर विदुर भावविभोर हो उठे। आँखों में आँसू भर कर वे तुरन्त अपने गुरु के चरणकमलों पर गिर पड़े। तब उन्होंने अपने अन्त:करण में भगवान् को स्थिर कर लिया। |
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श्लोक 29: श्रीविदुर ने कहा : हे परम योगी, हे भक्तों में महान्, आपने अहैतुकी कृपा से मुझे इस अंधकार रूपी संसार से मोक्ष का पथ प्रदर्शित किया है। इस भौतिक संसार से मुक्त पुरुष इस पथ पर चल कर इस संसार से भगवान् के धाम को वापस जा सकता है। |
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श्लोक 30: शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस प्रकार मैत्रेय मुनि को नमस्कार करके और उनसे अनुमति लेकर भौतिक इच्छाओं से रहित विदुर ने अपने परिजनों से मिलने के लिए हस्तिनापुर के लिए प्रस्थान किया। |
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श्लोक 31: हे राजन्, जो लोग श्रीभगवान् के प्रति पूर्णत: समर्पित राजाओं से सम्बन्धित इन कथाओं को सुनते हैं, वे बिना कठिनाई के दीर्घायु, सम्पत्ति, ख्याति, सौभाग्य (क्षेम) तथा अन्त में भगवद्धाम जाने का अवसर प्राप्त करते हैं। |
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