मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय ने कहा; एतावत्—इतना; उक्त्वा—कह कर; विरराम—शान्त हो गये; शङ्कर:—भगवान् शिव; पत्नी- अङ्ग-नाशम्—अपनी पत्नी के शरीर का विनाश; हि—चूँकि; उभयत्र—दोनों प्रकार से; चिन्तयन्—सोचते हुए; सुहृत्- दिदृक्षु:—अपने सम्बधियों को देखने के लिए इच्छुक; परिशङ्किता—भयभीत; भवात्—शिव से; निष्क्रामती—बाहर आती; निर्विशती—भीतर जाती; द्विधा—दुचित्ती; आस—थी; सा—वह (सती) ।.
अनुवाद
मैत्रेय मुनि ने कहा : सती को असमंजस में पाकर शिवजी यह कह कर शान्त हो गये। सती अपने पिता के घर में अपने सम्बन्धियों को देखने के लिए अत्यधिक इच्छुक थी, किन्तु साथ ही वह शिवजी की चेतावनी से भयभीत थी। मन अस्थिर होने से वह हिंडोले की भाँति कक्ष से बाहर और भीतर आ-जा रही थी।
तात्पर्य
सती का मन दुविधा में था कि वह पिता के घर जाए या शिवजी के आदेश का पालन करे। यह द्वन्द्व इतना प्रबल
था कि वह कभी कमरे के बाहर आती तो कभी भीतर जाती; उसकी गति घड़ी के पेंडुलम जैसी हो रही थी।
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All glories to saints and sages of the Supreme Lord
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥