जगर्ह सामर्षविपन्नया गिरा
शिवद्विषं धूमपथश्रमस्मयम् ।
स्वतेजसा भूतगणान्समुत्थितान्
निगृह्य देवी जगतोऽभिशृण्वत: ॥ १० ॥
शब्दार्थ
जगर्ह—निन्दा करने लगी; सा—वह; अमर्ष-विपन्नया—क्रोध के कारण अस्फुट; गिरा—वाणी से; शिव-द्विषम्—शिव का शत्रु; धूम-पथ—यज्ञों में; श्रम—कष्टों से; स्मयम्—अत्यन्त गर्वित; स्व-तेजसा—अपनी आज्ञा से; भूत-गणान्—भूतों के; समुत्थितान्—सन्नद्ध, तत्पर (दक्ष को मारने के लिए); निगृह्य—रोका; देवी—सती ने; जगत:—सबों की उपस्थिति में; अभिशृण्वत:—सुना जाकर ।.
अनुवाद
शिव के अनुचर, भूतगण दक्ष को क्षति पहुँचाने अथवा मारने के लिए तत्पर थे, किन्तु सती ने आदेश देकर उन्हें रोका। वे अत्यन्त क्रुद्ध और दुखी थीं और उसी भाव में वे यज्ञ के सकामकर्मों की विधि की तथा उन व्यक्तियों की, जो इस प्रकार के अनावश्यक एवं कष्टकर यज्ञों के लिए गर्व करते हैं, भर्त्सना करने लगीं। उन्होंने सबों के समक्ष अपने पिता के विरुद्ध बोलते हुए उसकी विशेष रूप से निन्दा की।
तात्पर्य
यज्ञ करने का विधान विशेष रूप से विष्णु को प्रसन्न करने के प्रयोजनार्थ होता है, जो यज्ञेश्वर कहलाते हैं क्योंकि समस्त यज्ञों के फल के भोक्ता वे ही हैं। इस तथ्य की पुष्टि भगवद्गीता (५.२९) में भी हुई है। भगवान् कहते हैं—भोक्तारं यज्ञतपसाम्। वे ही समस्त यज्ञों के वास्तविक भोक्ता हैं। अल्पज्ञानी लोग इस तथ्य को न जानने के कारण किसी भौतिक लाभ के हेतु यज्ञ करते हैं। इन्द्रियतृप्ति हेतु व्यक्तिगत लाभ उठाने के लिए ही दक्ष-जैसे व्यक्ति तथा उनके अनुयायी यज्ञ करते हैं। ऐसे यज्ञों को बिना किसी फल के श्रम करना कहा गया है। श्रीमद्भागवत से इसकी पुष्टि होती है। कोई भले ही यज्ञ तथा अन्य सकाम कर्मों को सम्पन्न करने के वैदिक आदेश का पालन करे, किन्तु यदि इन कार्यों से विष्णु के प्रति आकर्षण विकसित नहीं होता तो सारा श्रम निरर्थक है। जिसने विष्णु के लिए प्रेम उत्पन्न कर लिया है, उसे चाहिए कि विष्णु-भक्तों के लिए भी प्रेम तथा आदर विकसित करे। शिव को वैष्णवों में अग्रणी माना जाता है। वैष्णवानाम् यथा शम्भु:। अत: जब सती ने देखा कि उनका पिता महान् यज्ञ कर रहा है, किन्तु परम भक्त शिव के प्रति उसके मन में तनिक भी आदर नहीं है, तो वे अत्यन्त क्रोधित हुईं। यह ठीक ही है, यदि विष्णु या वैष्णव का अपमान हो तो मनुष्य को क्रुद्ध होना चाहिए। अहिंसा, विनयशीलता तथा नम्रता का पाठ पढ़ाने वाले भगवान् चैतन्य महाप्रभु ने जब सुना कि जगाई तथा माधाई ने नित्यानन्द का अपमान किया है, तो वे परम क्रुद्ध हुए और उन्हें जान से मार डालना चाहा। जब विष्णु या वैष्णव का अपमान हो तो मनुष्य को क्रुद्ध होना चाहिए। नरोत्तमदास ठाकुर ने कहा—क्रोध भक्त-द्वेषि जने। हममें क्रोध रहता है और यह क्रोध महान् गुण बन सकता है, यदि उसका उपयोग उस व्यक्ति पर किया जाय, जो भगवान् या उनके भक्तों का द्वेषी है। यदि कोई विष्णु या वैष्णव पर आक्रमण कर रहा हो तो इसे सहन नहीं करना चाहिए। सती द्वारा अपने पिता पर प्रदर्शित क्रोध आपत्तिजनक नहीं था, क्योंकि यद्यपि वह उनका पिता था, किन्तु वह सर्वश्रेष्ठ वैष्णव का अपमान कर रहा था। अत: सती का अपने पिता पर किया गया क्रोध श्लाघनीय था।
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