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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 4: सती द्वारा शरीर-त्याग  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  4.4.11 
देव्युवाच
न यस्य लोकेऽस्त्यतिशायन: प्रिय-
स्तथाप्रियो देहभृतां प्रियात्मन: ।
तस्मिन्समस्तात्मनि मुक्तवैरके
ऋते भवन्तं कतम: प्रतीपयेत् ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
देवी उवाच—देवी (सती) ने कहा; —नहीं; यस्य—जिसका; लोके—इस जगत में; अस्ति—है; अतिशायन:—प्रतिद्वन्द्वी न होना; प्रिय:—प्रिय; तथा—उसी प्रकार; अप्रिय:—शत्रु; देह-भृताम्—देहधारी; प्रिय-आत्मन:—अत्यन्त प्रिय; तस्मिन्—शिव के प्रति; समस्त-आत्मनि—संसार भर के प्राणी; मुक्त-वैरके—जो समस्त शत्रुता से मुक्त है, शत्रुविहीन; ऋते—अतिरिक्त; भवन्तम्—आपके; कतम:—कौन; प्रतीपयेत्—ईर्ष्यालु होगा ।.
 
अनुवाद
 
 देवी सती ने कहा : भगवान् शिव तो समस्त जीवात्माओं के लिए अत्यन्त प्रिय हैं। उनका कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं है। न तो कोई उनका अत्यन्त प्रिय है और न कोई उनका शत्रु है। आपके सिवा और ऐसा कौन है, जो ऐसे विश्वात्मा से द्वेष करेगा, जो समस्त वैर से रहित हैं?
 
तात्पर्य
 भगवद्गीता (९.२९) में भगवान् कहते हैं—समोऽहं सर्वभूतेषु—मैं समस्त प्राणियों के लिए एकसमान हूँ। इसी प्रकार शिवजी भगवान् के गुणात्मक अवतार हैं, अत: उनमें परमेश्वर के ही समान गुण पाये जाते हैं। अत: वे समदर्शी हैं, न तो कोई उनका मित्र है, और न कोई शत्रु, किन्तु जो स्वभाव से द्वेषपूर्ण होगा वह शिव का शत्रु बन सकता है। इसीलिए सती ने अपने पिता को दोषी ठहराया, “आपके अतिरिक्त भला ऐसा कौन है, जो शिव से ईर्ष्या करेगा या उनका शत्रु बनेगा?” अन्य साधु तथा विद्वान ब्राह्मण वहाँ उपस्थित थे, किन्तु वे शिव से ईर्ष्या नहीं कर रहे थे, यद्यपि वे सभी दक्ष के आश्रित थे। अत: दक्ष के अतिरिक्त भला अन्य कोई शिव से क्यों द्वेष करने लगा! यही सती का दोषारोपण था।
 
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