जिन लोगों ने इस नश्वर भौतिक शरीर को ही आत्मरूप मान रखा है, उनके लिए महापुरुषों की निन्दा करना कोई आश्चर्य की बात नहीं। भौतिकतावादी पुरुषों के लिए ऐसी ईर्ष्या ठीक ही है, क्योंकि इसी प्रकार से उनका पतन होता है। वे महापुरुषों की चरण-रज से लघुता प्राप्त करते हैं।
तात्पर्य
ग्रहणकर्ता की क्षमता पर प्रत्येक वस्तु निर्भर करती है। उदाहरणार्थ, झुलसती धूप में अनेक वनस्पतियाँ तथा पुष्प सूख जाते हैं, तो कई एक लहलहाते हैं। अत: उन्नति और अवनति का कारण ग्रहणकर्ता ही होता है। इसी प्रकार महीयसां पादरजोऽभिषेकम्—महापुरुषों के चरणकमलों की रज ग्रहणकर्ता का कल्याण करनेवाली है, किन्तु वही धूल हानि भी पहुँचा सकती है। जो किसी महापुरुष के चरणकमल के प्रति अपराध करते हैं, वे सूख जाते हैं, उनके दिव्य गुण घट जाते हैं। महापुरुष अपराधों को क्षमा कर सकते हैं, किन्तु कृष्ण उस महापुरुष के चरणकमल की धूल के प्रति किये अपराध को क्षमा नहीं करते। जिस प्रकार कोई अपने सिर पर झुलसती धूप को भले सहन कर ले, किन्तु पाँवों से उसे सहन नहीं कर पाता। अपराधी लगातार नीचे गिरता जाता है, अत: वह महात्मा के चरणों के प्रति अपराध करता जाता है। सामान्य रूप से अपराध वे करते हैं, जो अस्थिर देह को स्व मान बैठते हैं। राजा दक्ष देह को आत्मा मान बैठने के कारण अत्यधिक मोहग्रस्त था। उसने शिवजी के चरणों के प्रति अपराध किया, क्योंकि उसने अपने को सती के शरीर का पिता मानकर अपने शरीर को शिव से श्रेष्ठ मान लिया था। सामान्यत: अल्पज्ञानी ऐसी ही त्रुटि करते हैं और वे देहात्म-बुद्धि से काम लेते हैं। इस प्रकार वे महात्माओं के चरणकमलों के प्रति अधिकाधिक अपराध करते जाते हैं। जो जीवन के प्रति ऐसी विचारधारा रखता है, वह गायों तथा गधों जैसे पशुओं की श्रेणी में गिना जाता है।
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