सती ने आगे कहा : हे पिता, आप शिव से द्वेष करके घोरतम अपराध कर रहे हैं क्योंकि उनका दो अक्षरों, शि तथा व, वाला नाम मनुष्य को समस्त पापों से पवित्र करने वाला है। उनके आदेश की कभी उपेक्षा नहीं होती। शिवजी सदैव शुद्ध हैं और आपके अतिरिक्त अन्य कोई उनसे द्वेष नहीं करता।
तात्पर्य
चूँकि इस भौतिक जगत के प्राणियों में शिव ही सबसे महान् आत्मा हैं, अत: जो लोग देह को आत्मा मानते हैं उनके लिए उनका नाम परम कल्याणकारी है। यदि ऐसे लोग भगवान् शिव की शरण ग्रहण करें तो वे क्रमश: समझ सकेंगे कि वे देह नहीं, वरन् आत्मा हैं। शिव का अर्थ है मंगल। शरीर के भीतर आत्मा मंगल है। अहं ब्रह्मास्मि “मैं ब्रह्म हूँ” यह अनुभूति शुभ है। जब तक कोई अपनी पहचान आत्मा से नहीं करता, तब तक वह जो कुछ भी करता है, वह अशुभ है। “शिव” का अर्थ है “मंगलकारी” और शिव के भक्त धीरे-धीरे आत्मबोध के पद को प्राप्त करते हैं, किन्तु यही सब कुछ नहीं है। शुभ जीवन आत्मबोध से ही प्रारम्भ होता है। किन्तु कुछ अन्य कर्तव्य भी होते हैं— मनुष्य को परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध को समझना होता है। यदि वास्तव में कोई शिव का भक्त है, तो उसे आत्मबोध होता है। किन्तु यदि वह काफी बुद्धिमान नहीं होता तो वह वहीं रुक जाता है और केवल यही समझ पाता है कि वह आत्मा है (अहं ब्रह्मास्मि)। यदि वह बुद्धिमान है, तो उसे शिव के मार्ग पर अग्रसर होते रहना चाहिए, क्योंकि भगवान् शिव निरन्तर वासुदेव के विचारों में लीन रहते हैं। जैसाकि पहले कहा जा चुका है—सत्वं विशुद्धं वसुदेवशब्दितम्—भगवान् शिव सदैव वासुदेव श्रीकृष्ण के चरणकमल का ध्यान करते रहते हैं। इस प्रकार मनुष्य को भगवान् शिव के मंगल पद का बोध तभी होता है जब वह विष्णु की पूजा करता है, क्योंकि शिवपुराण में शिव का कथन है कि सर्वश्रेष्ठ पूजा विष्णु की पूजा है। भगवान् शिव पूजे जाते हैं, क्योंकि वे भगवान् विष्णु के सबसे बड़े भक्त हैं। किन्तु हमें कभी भी शिव तथा विष्णु को समान स्तर पर मानने की भूल नहीं करनी चाहिए। ऐसा करना नास्तिक विचार है। वैष्णवीय पुराण में यह भी कहा गया है कि विष्णु या नारायण परम पूज्य भगवान् ही हैं और उनकी तुलना किसी से नहीं करनी चाहिए, न तो शिव से, न ब्रह्मा से। अन्य देवताओं की तो बात ही नहीं उठती।
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