श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 4: सती द्वारा शरीर-त्याग  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  4.4.15 
यत्पादपद्मं महतां मनोऽलिभि-
र्निषेवितं ब्रह्मरसासवार्थिभि: ।
लोकस्य यद्वर्षति चाशिषोऽर्थिन-
स्तस्मै भवान्द्रुह्यति विश्वबन्धवे ॥ १५ ॥
 
शब्दार्थ
यत्-पाद-पद्मम्—जिनके चरणकमल; महताम्—महान् पुरुषों के; मन:-अलिभि:—मनरूपी भौरों से; निषेवितम्—संलग्न रहकर; ब्रह्म-रस—दिव्य आनन्द (ब्रह्मानन्द) का; आसव-अर्थिभि:—अमृत की खोज में; लोकस्य—सामान्य जन की; यत्—जो; वर्षति—पूरी करता है; च—तथा; आशिष:—इच्छाएँ; अर्थिन:—ढूँढते हुए; तस्मै—उस; भवान्—आप; द्रुह्यति—द्रोह करते हैं; विश्व-बन्धवे—तीनों लोक की समस्त जीवात्माओं के मित्र के प्रति ।.
 
अनुवाद
 
 आप उन शिव से द्रोह करते हैं, जो तीनों लोकों के समस्त प्राणियों के मित्र हैं। वे सामान्य पुरुषों की समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाले हैं और ब्रह्मानन्द (दिव्य आनन्द) की खोज करने वाले उन महापुरुषों को भी आशीर्वाद देते हैं, जो उनके चरण-कमलों के ध्यान में लीन रहते हैं।
 
तात्पर्य
 सामान्य रूप से मनुष्यों की दो श्रेणियाँ हैं। एक तो वे जो नितान्त भौतिकतावादी हैं, भौतिक सम्पत्ति के कामी हैं और शिव की पूजा करने से जिनकी इच्छाएँ पूरी होती हैं। आशुतोष होने के कारण शिवजी सामान्य जनों की भौतिक इच्छाओं को पूरा करने वाले हैं, अत: यह देखा जाता है कि सामान्य जन उनकी पूजा करने में विशेष तत्पर रहते हैं। दूसरे वे लोग हैं, जो भौतिक जीवन से ऊब गये हैं, वे मोक्ष पाने के लिए शिवजी की पूजा करते हैं जिसका अर्थ है देहात्म-बुद्धि से मुक्ति। जो यह समझता है कि वह देह नहीं, वरन् आत्मा है, वह अविद्या से मुक्ति पा जाता है। भगवान् शिव भी यह सुविधा प्रदान करते हैं। सामान्य रूप से लोग आर्थिक विकास करके धन कमाने के लिए धर्म धारण करते हैं, क्योंकि धन से वे अपनी इन्द्रियों को तुष्ट कर सकते हैं। किन्तु जब वे जीवन से ऊब जाते हैं, वे आत्मिक ब्रह्मानन्द चाहते हैं, अर्थात् परमेश्वर से तदाकार होना चाहते हैं। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष—ये चार भौतिक जीवन के पुरुषार्थ हैं और भगवान् शिव सामान्य जनों के तथा आध्यात्मिक ज्ञान में उन्नत लोगों के समान रूप से मित्र हैं। अत: इनसे शत्रुता करना दक्ष के लिए उचित न था। यहाँ तक कि वैष्णव भी, जो इस लोक के सामान्य तथा उन्नत जनों से बढक़र हैं, शिव की पूजा सर्वश्रेष्ठ वैष्णव के रूप में करते हैं। इस प्रकार वे सबों के मित्र हैं—चाहे सामान्यजन हों, उन्नत जन हों या कि भगवद्भक्त हों—अत: किसी को भी न तो शिवजी का अनादर करना चाहिए, न उनसे शत्रुता करनी चाहिए।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥