अतस्तवोत्पन्नमिदं कलेवरं
न धारयिष्ये शितिकण्ठगर्हिण: ।
जग्धस्य मोहाद्धि विशुद्धिमन्धसो
जुगुप्सितस्योद्धरणं प्रचक्षते ॥ १८ ॥
शब्दार्थ
अत:—इसलिए; तव—तुम से; उत्पन्नम्—प्राप्त; इदम्—यह; कलेवरम्—शरीर; न धारयिष्ये—धारण नहीं करूँगी; शिति- कण्ठ-गर्हिण:—शिव को अपमानित करने वाला; जग्धस्य—खाया गया; मोहात्—भूल से; हि—क्योंकि; विशुद्धिम्—शुद्धि; अन्धस:—भोजन का; जुगुप्सितस्य—विषैला; उद्धरणम्—वमन, कै; प्रचक्षते—घोषित किया जाता है ।.
अनुवाद
अत: मैं इस अयोग्य शरीर को, जिसे मैंने आपसे प्राप्त किया है और अधिक काल तक धारण नहीं करूँगी, क्योंकि आपने शिवजी की निन्दा की है। यदि कोई विषैला भोजन कर ले तो सर्वोत्तम उपचार यही है कि उसे वमन कर दिया जाय।
तात्पर्य
चूँकि सती भगवान् की बहिरंगा शक्ति की प्रतिनिधि थीं, अत: यह उनके वश में था कि वे अनेक ब्रह्माण्डों को, जिसमें अनेकों दक्ष सम्मिलित हैं, विनष्ट कर दें, किन्तु अपने पति को इस दोषारोपण से बचाने के लिए कि उन्होंने दक्ष को मारने के लिए अपनी पत्नी सती को माध्यम बनाया, क्योंकि वे स्वयं निम्न पद पर स्थित होने से वैसा नहीं कर सके, सती ने अपना शरीर त्यागने का निश्चय किया।
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