श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 4: सती द्वारा शरीर-त्याग  »  श्लोक 20
 
 
श्लोक  4.4.20 
कर्म प्रवृत्तं च निवृत्तमप्यृतं
वेदे विविच्योभयलिङ्गमाश्रितम् ।
विरोधि तद्यौगपदैककर्तरि
द्वयं तथा ब्रह्मणि कर्म नर्च्छति ॥ २० ॥
 
शब्दार्थ
कर्म—कार्य; प्रवृत्तम्—भौतिक सुख में आसक्त; च—तथा; निवृत्तम्—भौतिक दृष्टि से विरक्त; अपि—निश्चय ही; ऋतम्— सत्य; वेदे—वेदों में; विविच्य—अन्तर वाले; उभय-लिङ्गम्—दोनों के लक्षण; आश्रितम्—निर्देशित; विरोधि—विरोधी; तत्— वह; यौगपद-एक-कर्तरि—एक ही व्यक्ति में दोनों कर्म; द्वयम्—दो; तथा—अत:; ब्रह्मणि—दिव्य पुरुष में; कर्म—कार्य; न ऋच्छति—उपेक्षित होते हैं ।.
 
अनुवाद
 
 वेदों में दो प्रकार के कर्मों के निर्देश दिये गये हैं—एक उनके लिए जो भौतिक सुख में लिप्त हैं और दूसरा उनके लिए जो भौतिक रूप से विरक्त हैं। इन दो प्रकार के कर्मों का विचार करते हुए दो प्रकार के मनुष्य हैं जिनके लक्षण भिन्न-भिन्न हैं। यदि कोई एक ही व्यक्ति में इन दोनों प्रकार के कर्मों को देखना चाहता है, तो यह विरोधाभास होगा। किन्तु दिव्य पुरुष के द्वारा इन दोनों प्रकार के कर्मों की उपेक्षा की जा सकती है।
 
तात्पर्य
 वैदिक कर्मों को इस प्रकार से निरूपित किया गया है कि बद्धजीव निर्दिष्ट स्थिति में इस संसार का भोग करके अन्त में भोग से विरक्त होकर दिव्य स्थिति को प्राप्त हो। चारों सामाजिक आश्रम—ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास—दिव्य जीवन के पद तक उत्तरोत्तर पहुँचने की शिक्षा देते हैं। गृहस्थ के कर्म तथा वेश संन्यासी से भिन्न हैं। एक ही व्यक्ति के लिए इन दोनों आश्रमों को ग्रहण कर पाना असम्भव है। न तो संन्यासी गृहस्थ की तरह कर्म कर सकता है और न गृहस्थ संन्यासी की भाँति। किन्तु इन दो प्रकार के मनुष्यों के ऊपर मनुष्य की तीसरी कोटि भी है, जो इन दोनों से परे हैं। भगवान् शिव को दिव्य पद प्राप्त है, क्योंकि ऊपर कहे अनुसार वे अपने अन्तर में भगवान् वासुदेव के ध्यान में खोये रहते हैं। अत: उन पर न तो गृहस्थ के और न संन्यासियों के कर्म लागू होते हैं। वे परमहंस अवस्था को प्राप्त हैं। भगवद्गीता (२.५२-५३) में भी शिव की दिव्य स्थिति की व्याख्या है। वहाँ यह कहा गया है कि जब फल की इच्छा के बिना कर्म करते हुए भगवान् की दिव्य सेवा की जाती है, तो मनुष्य दिव्य पद को प्राप्त होता है। उस समय उसके लिए वैदिक आदेशों या वेदों के विभिन्न विधि-विधानों का पालन करना अनिवार्य नहीं होता। जब मनुष्य वैदिक अनुष्ठानों से सम्बन्धित अपनी कामनाओं को पूरा करने के आदेशों के ऊपर उठकर दिव्य विचार में पूर्णत: खोया रहता है, अर्थात् भगवान् के विचार में मग्न रहता है, तो इस स्थिति को बुद्धियोग या समाधि कहते हैं। जो पुरुष इस स्थिति को प्राप्त कर लेता है उस पर न तो भौतिक सुख प्राप्त करने के और न विरक्ति के वैदिक कर्म लागू होते हैं।
 
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