श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 4: सती द्वारा शरीर-त्याग  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  4.4.22 
नैतेन देहेन हरे कृतागसो
देहोद्भवेनालमलं कुजन्मना ।
व्रीडा ममाभूत्कुजनप्रसङ्गत-
स्तज्जन्म धिग्यो महतामवद्यकृत् ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
न—नहीं; एतेन—इस; देहेन—देह के द्वारा; हरे—शिव के प्रति; कृत-आगस:—अपराध करके; देह-उद्भवेन—आपके शरीर से उत्पन्न; अलम् अलम्—बहुत हुआ, बहुत हुआ, बस बस; कु-जन्मना—निन्दनीय जन्म से; व्रीडा—लज्जा; मम—मेरा; अभूत्— था; कु-जन-प्रसङ्गत:—बुरे व्यक्ति के साथ से; तत् जन्म—वह जन्म; धिक्—धिक्कार है, लज्जाजनक; य:—जो; महताम्— महापुरुषों का; अवद्य-कृत्—अपराधी ।.
 
अनुवाद
 
 आप भगवान् शिव के चरणकमलों के प्रति अपराधी हैं और दुर्भाग्यवश मेरा शरीर आपसे उत्पन्न है। मुझे अपने इस शारीरिक सम्बन्ध के लिए अत्यधिक लज्जा आ रही है और मैं अपनी स्वयं भर्त्सना करती हूँ कि मेरा शरीर ऐसे व्यक्ति के सम्बन्ध से दूषित है, जो महापुरुष के चरणकमलों के प्रति अपराधी है।
 
तात्पर्य
 शिवजी भगवान् विष्णु के समस्त भक्तों में सर्वोच्च हैं। कहा गया है—वैष्णवानां यथा शम्भु:। शम्भु अर्थात् शिव, भगवान् विष्णु के सबसे बड़े भक्त हैं। पिछले श्लोकों में सती ने कहा है कि शिव सदैव दिव्य स्थिति को प्राप्त रहते हैं, क्योंकि वे शुद्ध वसुदेव अवस्था में स्थित रहते हैं। वसुदेव वह अवस्था है, जिससे वासुदेव श्रीकृष्ण उत्पन्न हैं, अत: शिवजी श्रीकृष्ण के सबसे बड़े भक्त हैं और सती का आचरण आदर्शमय है, क्योंकि किसी को भी भगवान् विष्णु या उनके भक्त का अपमान सहन नहीं करना चाहिए। सती को शिव की संगिनी होने का खेद नहीं है बल्कि दुख इसका है कि उनका शरीर दक्ष से उत्पन्न है, जो शिवजी के चरणकमलों के प्रति अपराधी है। वे अपने को धिक्कारती हैं, क्योंकि उनका यह शरीर उनके पिता दक्ष द्वारा प्रदत्त है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥