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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 4: सती द्वारा शरीर-त्याग  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  4.4.23 
गोत्रं त्वदीयं भगवान्वृषध्वजो
दाक्षायणीत्याह यदा सुदुर्मना: ।
व्यपेतनर्मस्मितमाशु तदाऽहं
व्युत्स्रक्ष्य एतत्कुणपं त्वदङ्गजम् ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
गोत्रम्—पारिवारिक सम्बन्ध; त्वदीयम्—आपका; भगवान्—समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी; वृषध्वज:—शिव; दाक्षायणी—दक्ष की कन्या, दाक्षायणी; इति—इस प्रकार; आह—कहती है; यदा—जब; सुदुर्मना:—अत्यन्त खिन्न; व्यपेत—अदृश्य होते हैं; नर्म स्मितम्—मेरी प्रसन्नता तथा हँसी; आशु—तुरन्त; तदा—तब; अहम्—मैं; व्युत्स्रक्ष्ये—त्याग दूँगी; एतत्—यह (शरीर); कुणपम्—मृत शरीर; त्वत्-अङ्ग-जम्—तुम्हारे शरीर से उत्पन्न ।.
 
अनुवाद
 
 जब शिवजी मुझे दाक्षायणी कह कर पुकारते हैं, तो अपने पारिवारिक सम्बन्ध के कारण मैं तुरन्त खिन्न हो उठती हूँ और मेरी सारी प्रसन्नता तथा हँसी तुरन्त भाग जाती है। मुझे अत्यन्त खेद होता है कि मेरा यह थैले जैसा शरीर आपके द्वारा उत्पन्न है। अत: मैं इसे त्याग दूँगी।
 
तात्पर्य
 दाक्षायणी शब्द का अर्थ है “राजा दक्ष की पुत्री।” कभी-कभी पति तथा पत्नी अवकाश के क्षणों में बातें करते तो शिवजी सती को “दाक्षायणी” कहते और चूँकि इस शब्द से ही उन्हें राजा दक्ष से अपने सम्बन्ध की याद आ जाती तो वह लज्जित होतीं, क्योंकि दक्ष तो समस्त अपराधों का अवतार था। वह द्वेष-रूप था, क्योंकि वह वृथा ही शिव जैसे महापुरुष की निन्दा करता था। अत: दाक्षायणी शब्द को सुनते ही वे शोकाकुल हो उठतीं, क्योंकि दक्ष से उत्पन्न होने से उनका शरीर भी अपराधों का प्रतीक था। चूँकि उनका शरीर सतत अप्रसन्नता का कारण बना रहता था, इसलिए उन्होंने उसे त्याग देने का निश्चय किया।
 
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