श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 4: सती द्वारा शरीर-त्याग  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  4.4.24 
मैत्रेय उवाच
इत्यध्वरे दक्षमनूद्य शत्रुहन्
क्षितावुदीचीं निषसाद शान्तवाक् ।
स्पृष्ट्वा जलं पीतदुकूलसंवृता
निमील्य द‍ृग्योगपथं समाविशत् ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय ने कहा; इति—इस प्रकार; अध्वरे—यज्ञस्थल में; दक्षम्—दक्ष को; अनूद्य—बोल कर; शत्रु-हन्— शत्रुओं के विनाशकर्ता; क्षितौ—पृथ्वी पर; उदीचीम्—उत्तर की ओर; निषसाद—बैठ गई; शान्त-वाक्—चुप होकर; स्पृष्ट्वा— छूकर; जलम्—जल; पीत-दुकूल-संवृता—पीले वस्त्रों से आच्छादित; निमील्य—मूँद कर; दृक्—दृष्टि; योग-पथम्—योग क्रिया; समाविशत्—ध्यानमग्न हो गई ।.
 
अनुवाद
 
 मैत्रय ऋुषि ने विदुर से कहा : हे शत्रुओं के संहारक, यज्ञस्थल में अपने पिता से ऐसा कह कर सती भूमि पर उत्तरमुख होकर बैठ गईं। केसरिया वस्र धारण किये उन्होंने जल से अपने को पवित्र किया और योगक्रिया में अपने को ध्यानमग्न करने के लिए अपनी आँखें मूँद लीं।
 
तात्पर्य
 कहा जाता है कि जब मनुष्य अपना शरीर त्यागना चाहता है, तो वह केसरिया वस्त्र पहन लेता है। अत: ऐसा लगता है कि सती ने अपने वस्त्र बदल दिये, जिससे यह पता चल जाये कि वे दक्ष द्वारा प्रदत्त शरीर को त्यागने जा रही हैं। दक्ष सती के पिता थे, अत: उनका वध करने के बजाय सती ने उनके द्वारा प्रदत्त अपने शरीर को नष्ट करना श्रेयस्कर समझा। उन्होंने अपने शरीर को योगक्रिया द्वारा त्याग देने का निश्चय किया। सती योगेश्वर शिव की पत्नी थीं। शिवजी समस्त योगियों में श्रेष्ठ हैं, क्योंकि वे समस्त योग-क्रियाएँ जानते हैं, अत: ऐसा जान पड़ता है कि सती भी यह सब जानती थीं। या तो उन्होंने अपने पति से योग सीखा, अथवा दक्ष जैसे महान् सम्राट् की पुत्री होने के कारण वे सुशिक्षित थीं। योग की सिद्धि इसी में है कि स्वेच्छा से मनुष्य अपना शरीर छोड़ दे या भौतिक तत्त्वों के संयोग से अपने को छुटकारा दिला ले। जो योगी सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं उनकी मृत्यु प्राकृतिक नियमों के अनुसार नहीं होती, ऐसे सिद्ध योगी अपनी इच्छानुसार शरीर त्यागते हैं। सामान्य रूप से योगी पहले शरीर के भीतर की वायु को साधने से सिद्धहस्त हो जाता है और इस प्रकार आत्मा को मस्तिष्क के शीर्ष पर ले आता है। फिर जब शरीर से ज्वाला फुट पड़ती है तो योगी इच्छानुसार कहीं भी जा सकता है। इस प्रकार की योगपद्धति में आत्मा को मान्यता दी जाती है और इस प्रकार यह उस तथाकथित योगविधि से भिन्न है, जिसे आधुनिक युग में शरीर की कोशिकाओं के ऊपर नियंत्रण रखने के लिए ढूँढ निकाला गया है। वास्तविक योगपद्धति में आत्मा के एक लोक से दूसरे लोक तक या एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानान्तरण को अपनाया जाता है और इस घटना से ऐसा लगता है कि सती अपनी आत्मा को अन्य शरीर में या लोक में स्थानान्तरित करना चाहा था।
 
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