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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 4: सती द्वारा शरीर-त्याग  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  4.4.29 
अहो अनात्म्यं महदस्य पश्यत
प्रजापतेर्यस्य चराचरं प्रजा: ।
जहावसून् यद्विमतात्मजा सती
मनस्विनी मानमभीक्ष्णमर्हति ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
अहो—ओह; अनात्म्यम्—उपेक्षा; महत्—भारी; अस्य—दक्ष की; पश्यत—जरा देखो तो; प्रजापते:—प्रजापति; यस्य— जिसकी; चर-अचरम्—समस्त जीवात्माएँ; प्रजा:—सन्तान; जहौ—त्याग दिया; असून्—अपना शरीर; यत्—जिससे; विमता—अनादरित; आत्म-जा—अपनी पुत्री; सती—सती; मनस्विनी—स्वेच्छा से; मानम्—आदर, सम्मान; अभीक्ष्णम्— बारम्बार; अर्हति—योग्यता रखती थी ।.
 
अनुवाद
 
 यह आश्चर्यजनक बात है कि प्रजापति दक्ष, जो समस्त जीवात्माओं का पालनहारा है, अपनी पुत्री सती के प्रति इतना निरादरपूर्ण था कि उस परम साध्वी एवं महान् आत्मा ने उसकी उपेक्षा के कारण अपना शरीर त्याग दिया।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर अनात्म्य शब्द महत्त्वपूर्ण है। आत्म्य का अर्थ है, “आत्मा का जीवन” अत: यह शब्द बताता है कि यद्यपि दक्ष जीवित प्रतीत होता था, किन्तु वास्तव में वह मृतक था, अन्यथा वह अपनी निजी पुत्री सती की उपेक्षा क्यों करता? दक्ष का परम कर्तव्य था कि वह समस्त जीवात्माओं के पालन एवं सुविधाओं का ध्यान रखता क्योंकि उसे प्रजापति का पद प्राप्त था। तो फिर उसने अपनी पुत्री की क्योंकर उपेक्षा की, जो इतनी साध्वी थी और अपने पिता से सभी प्रकार का आदर पाने की अधिकारिणी थी? अपने पिता दक्ष की उपेक्षा के कारण सती की मृत्यु ब्रह्माण्ड के सभी बड़े-बड़े देवताओं के लिए आश्चर्यजनक थी।
 
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