श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 4: सती द्वारा शरीर-त्याग  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  4.4.32 
तेषामापततां वेगं निशाम्य भगवान् भृगु: ।
यज्ञघ्नघ्नेन यजुषा दक्षिणाग्नौ जुहाव ह ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
तेषाम्—उनके; आपतताम्—निकट पहुँचे; वेगम्—वेग; निशाम्य—देखकर; भगवान्—समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी; भृगु:— भृगुमुनि; यज्ञ-घ्न-घ्नेन—यज्ञ को विध्वंस करने वालों को मारने के लिए; यजुषा—यजुर्वेद के मंत्रों से; दक्षिण-अग्नौ—यज्ञ की अग्नि की दक्षिण दिशा में; जुहाव—आहुति दी; ह—निश्चय ही ।.
 
अनुवाद
 
 वे बलपूर्वक आगे बढ़े, किन्तु भृगु मुनि ने संकट को ताड़ लिया और याज्ञिक अग्नि की दक्षिण दिशा में आहुति डालते हुए उन्होंने तुरन्त यजुर्वेद से मंत्र पढ़े जिससे यज्ञ को विध्वंस करने वाले तुरन्त मर जाएँ।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर वेदों के शक्तिवाली मंत्रों का एक उदाहरण है जिनके उच्चारण से अद्भुत कार्य हो सकते हैं। इस कलियुग में कुशल मंत्र उच्चारण करने वालों को ढूँढ पाना कठिन है, अत: इस युग में वेदों में संस्तुत समस्त यज्ञ वर्जित हैं। इस युग में केवल एक यज्ञ की संस्तुति की गई है और वह है हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन, क्योंकि इस युग में यज्ञ सम्पन्न करने के लिए आवश्यक धन को एकत्र कर पाना सम्भव नहीं है, ठीक से मंत्रों का उच्चारण करने वाले ब्राह्मणों की खोज कर पाना तो और भी कठिन है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥