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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 4: सती द्वारा शरीर-त्याग  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  4.4.34 
तैरलातायुधै: सर्वे प्रमथा: सहगुह्यका: ।
हन्यमाना दिशो भेजुरुशद्‌भिर्ब्रह्मतेजसा ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
तै:—उनके द्वारा; अलात-आयुधै:—अग्नि के हथियारों से; सर्वे—सभी; प्रमथा:—भूतगण; सह-गुह्यका:—गुह्यकों सहित; हन्यमाना:—आक्रमण किये गये; दिश:—विभिन्न दिशाओं में; भेजु:—भग गये; उशद्भि:—जलते हुए; ब्रह्म-तेजसा—ब्रह्म शक्ति से ।.
 
अनुवाद
 
 जब ऋभु देवताओं ने भूतों तथा गुह्यकों पर यज्ञ की अधजली समिधाओं से आक्रमण कर दिया तो सती के सारे अनुचर विभिन्न दिशाओं में भागकर अदृश्य हो गये। यह ब्रह्मतेज अर्थात् ब्राह्मणशक्ति के कारण ही सम्भव हो सका।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में आया हुआ ब्रह्मतेजसा शब्द सार्थक है। उन दिनों ब्राह्मण इतने शक्तिशाली हुआ करते थे कि वे इच्छाशक्ति से तथा वैदिक मंत्रों के उच्चारण से ही आश्चर्यजनक कार्य सम्पन्न कर लेते थे। किन्तु अवनति के इस आधुनिक युग में ऐसे ब्राह्मण मिलते ही नही हैं। पांचरात्रिक पद्धति के अनुसार इस युग में सारी आबादी शूद्रों की मानी गई है, क्योंकि ब्राह्मण-संस्कृति विनष्ट हो चुकी है। किन्तु यदि किसी में कृष्णभावनामृत को समझने के लक्षण दृष्टिगोचर हों तो उसे वैष्णव स्मृति विधान के अनुसार भावी ब्राह्मण स्वीकृत करके उच्चतम सिद्धि प्राप्त करने के लिए समस्त सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए। इस पतित युग में जीवन की परम सिद्धि प्राप्त करने का यदि कोई साधन है, तो भगवान् चैतन्य वह अमूल्य की देन है, जिसमें हरे कृष्ण कीर्तन की प्रक्रिया को ग्रहण करके आत्म-साक्षात्कार के समस्त कार्यों की पूर्ति हो जाती है।
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कन्ध के अन्तर्गत, “सती द्वारा शरीर त्याग” नामक चौथे अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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