श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 4: सती द्वारा शरीर-त्याग  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  4.4.4 
तामन्वगच्छन् द्रुतविक्रमां सतीम्
एकां त्रिनेत्रानुचरा: सहस्रश: ।
सपार्षदयक्षा मणिमन्मदादय:
पुरोवृषेन्द्रास्तरसा गतव्यथा: ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
ताम्—उसको (सती को); अन्वगच्छन्—पीछा करते; द्रुत-विक्रमाम्—तेजी से छोड़ते; सतीम्—सती को; एकाम्—अकेले; त्रि-नेत्र—शिव (तीन नेत्रों वाले) के; अनुचरा:—अनुयायी; सहस्रश:—हजारों; स-पार्षद-यक्षा:—उनके पार्षदों तथा यक्षों के सहित; मणिमत्-मद-आदय:—मणिमान्, मद आदि.; पुर:-वृष-इन्द्रा:—नन्दी बैल को आगे करके; तरसा—तेजी से; गत व्यथा:—निर्भीक ।.
 
अनुवाद
 
 जब उन्होंने सती को तेजी से अकेले जाते देखा तो शिवजी के हजारों अनुत्तर, जिनमें मणिमान तथा मद प्रमुख थे, नन्दी बैल को आगे करके तथा यक्षों को साथ लेकर जल्दी से सती के पीछे-पीछे हो लिए।
 
तात्पर्य
 सती बड़ी तेजी से जा रही थीं कि कहीं उनके पति रोक न लें, किन्तु तुरन्त ही उनके साथ शिवजी के हजारों अनुत्तर लग गये, जिनमें यक्ष, मणिमान तथा मद मुख्य थे। यहाँ पर प्रयुक्त शब्द गतव्यथा का अर्थ है, “बिना किसी भय के।” सती को इसकी परवाह न थी कि वह अकेले जा रही है, अत: वह निडर थीं। अनुचरा: शब्द भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इससे सूचित होता है कि शिवजी के अनुत्तर शिवजी के लिए सब कुछ बलिदान करने के लिए उद्यत रहते थे। वे सभी शिवजी की इच्छा को जान गये कि वे सती को अकेले नहीं जाने देना चाहते थे। अनुचरा: का अर्थ है, “वे जो अपने स्वामी के प्रयोजन को तुरन्त समझ लें।”
 
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