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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 4: सती द्वारा शरीर-त्याग  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  4.4.7 
तामागतां तत्र न कश्चनाद्रियद्
विमानितां यज्ञकृतो भयाज्जन: ।
ऋते स्वसृर्वै जननीं च सादरा:
प्रेमाश्रुकण्ठ्य: परिषस्वजुर्मुदा ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
ताम्—उसके (सती के); आगताम्—आगमन से; तत्र—वहाँ; —नहीं; कश्चन—किसी ने; आद्रियत्—स्वागत किया; विमानिताम्—आदर न पाकर; यज्ञ-कृत:—यज्ञकर्ता (दक्ष); भयात्—भय से; जन:—व्यक्ति; ऋते—के अतिरिक्त; स्वसृ:— उसकी बहनें; वै—निस्सन्देह; जननीम्—माता; —तथा; स-आदरा:—आदर सहित; प्रेम-अश्रु-कण्ठ्य:—स्नेह-अश्रुओं से भरे हुए कण्ठ; परिषस्वजु:—आलिंगन किया; मुदा—प्रसन्न मुख से ।.
 
अनुवाद
 
 जब सती अनुचरों सहित यज्ञस्थल में पहुँचीं, तो किसी ने उनका स्वागत नहीं किया, क्योंकि वहाँ पर एकत्रित सभी लोग दक्ष से भयभीत थे। उनकी माता तथा बहनों ने अश्रुपूरित नेत्रों तथा प्रसन्न मुखों से उसका स्वागत किया और उससे बड़े ही प्रेम से बातें कीं।
 
तात्पर्य
 सती की माता तथा बहनों ने अन्यों का अनुसरण नहीं किया। सहज प्रेम के कारण वे तुरन्त प्रेमाश्रुपूरित नेत्रों से गले लग गईं। इससे प्रकट होता है कि स्त्रियाँ कितनी कोमलहृदया होती हैं। उनके सहज स्नेह को कृत्रिम साधनों से नहीं रोका जा सकता। यद्यपि वहाँ पर एकत्र पुरुष अत्यन्त विद्वान् ब्राह्मण तथा देवता थे, किन्तु वे अपने से श्रेष्ठ दक्ष से भयभीत थे और वे जानते थे कि यदि वे सती का स्वागत करेंगे तो दक्ष रुष्ट होगा, अत: मन में चाहते हुए भी वे वैसा नहीं कर पाये। स्त्रियाँ स्वभाव से कोमल-हृदया होती हैं, किन्तु पुरुष कभी-कभी अत्यन्त कठोर हृदय होते हैं।
 
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