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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 5: दक्ष के यज्ञ का विध्वंस  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  4.5.11 
अमर्षयित्वा तमसह्यतेजसं
मन्युप्लुतं दुर्निरीक्ष्यं भ्रुकुट्या ।
करालदंष्ट्राभिरुदस्तभागणं
स्यात्स्वस्ति किं कोपयतो विधातु: ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
अमर्षयित्वा—नाराज करके; तम्—उसको (शिव को); असह्य-तेजसम्—असहनीय तेज वाले; मन्यु-प्लुतम्—क्रोध से पूरित; दुर्निरीक्ष्यम्—देखने में असमर्थ; भ्रु-कुट्या—भौंहों के हिलने से; कराल-दंष्ट्राभि:—डरावने दाँतों से; उदस्त-भागणम्— ज्योतिपुंजों (तारों) को अस्त-व्यस्त करके; स्यात्—हो; स्वस्ति—कल्याण; किम्—कैसे; कोपयत:—(शिव को) क्रुद्ध करने पर; विधातु:—ब्रह्मा का ।.
 
अनुवाद
 
 उस विराट श्याम पुरुष ने अपने डरावने दाँत निकाल लिए। अपनी भौंहों के चालन से उसने आकाश भर में तारों को तितर-बितर कर दिया और उन्हें अपने प्रबल भेदक तेज से आच्छादित कर लिया। दक्ष के कुव्यवहार के कारण दक्ष के पिता ब्रह्मा तक इस घोर कोप-प्रदर्शन से नहीं बच सकते थे।
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥