बह्वेवमुद्विग्नदृशोच्यमाने
जनेन दक्षस्य मुहुर्महात्मन: ।
उत्पेतुरुत्पाततमा: सहस्रशो
भयावहा दिवि भूमौ च पर्यक् ॥ १२ ॥
शब्दार्थ
बहु—अनेक; एवम्—इस प्रकार; उद्विग्न-दृशा—कातर दृष्टि से; उच्यमाने—जब ऐसा कहा जा रहा था; जनेन—(यज्ञ में एकत्र) व्यक्तियों द्वारा; दक्षस्य—दक्ष के; मुहु:—पुन:-पुन:; महा-आत्मन:—पुष्ट हृदय वाले, निडर; उत्पेतु:—प्रकट हुआ; उत्पात-तमा:—अत्यन्त प्रबल लक्षण; सहस्रश:—हजारों; भय-आवहा:—भय उत्पन्न करने वाले; दिवि—आकाश में; भूमौ— भूमि पर; च—तथा; पर्यक्—सभी दिशाओं से ।.
अनुवाद
जब सभी लोग परस्पर बातें कर रहे थे तो दक्ष को समस्त दिशाओं से, पृथ्वी से तथा आकाश से, अशुभ संकेत (अपशकुन) दिखाई पडऩे लगे।
तात्पर्य
इस श्लोक में दक्ष को महात्मा कहा गया है। महात्मा शब्द की टीका विभिन्न टीकाकारों ने अपने-अपने ढंग से की है। वीरराघव आचार्य ने संकेत किया है कि इस महात्मा शब्द का अर्थ “स्थिर-हृदय” है। कहने का तात्पर्य यह है कि दक्ष इतना पुष्ट-हृदय था कि पुत्री अपने प्राण देने को तत्पर थी फिर भी वह हिला नहीं, स्थिर बना रहा। इतने पर भी जब उसने विराट श्याम असुर द्वारा उत्पन्न विविध प्रकार के उत्पातों को देखा तो वह विचलित हो गया। इस सम्बन्ध में विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर की टिप्पणी है कि महात्मा कहलाए जाने के बावजूद जब तक किसी में महात्मा के लक्षण प्रकट न हों, तब तक उसे दुरात्मा समझना चाहिए। भगवद्गीता (९.१३) में महात्मा शब्द भगवान् के शुद्ध भक्त के लिए आया है—महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:। महात्मा सदैव भगवान् की अन्तरंगा शक्ति के मार्गदर्शन में रहता है, अत: दक्ष जैसा दुराचारी पुरुष महात्मा कैसे हो सकता था? महात्मा में देवताओं के सभी सद्गुण होने चाहिए, अत: इन गुणों से विहीन दक्ष किस तरह महात्मा कहला सकता था, उसे तो दुरात्मा कहा जाना चाहिए। यहाँ पर यह शब्द व्यंग्यपूर्वक प्रयुक्त है।
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