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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 5: दक्ष के यज्ञ का विध्वंस  »  श्लोक 19
 
 
श्लोक  4.5.19 
जुह्वत: स्रुवहस्तस्य श्मश्रूणि भगवान् भव: ।
भृगोर्लुलुञ्चे सदसि योऽहसच्छ्‌मश्रु दर्शयन् ॥ १९ ॥
 
शब्दार्थ
जुह्वत:—हवन करते हुए; स्रुव-हस्तस्य—हाथ में स्रुवा लिए; श्मश्रूणि—मूँछ; भगवान्—समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी; भव:— वीरभद्र; भृगो:—भृगुमुनि की; लुलुञ्चे—नोंच लीं; सदसि—भरी सभा में; य:—जो (भृगुमुनि); अहसत्—हँसा था; श्मश्रु— मूँछ; दर्शयन्—दिखाते हुए ।.
 
अनुवाद
 
 वीरभद्र ने अपने हाथों से अग्नि में आहुति डालते हुए भृगुमुनि की मूँछ नोच ली।
 
 
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