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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 5: दक्ष के यज्ञ का विध्वंस  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  4.5.26 
जुहावैतच्छिरस्तस्मिन्दक्षिणाग्नावमर्षित: ।
तद्देवयजनं दग्ध्वा प्रातिष्ठद् गुह्यकालयम् ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
जुहाव—आहुति की; एतत्—वह; शिर:—सिर; तस्मिन्—उसमें; दक्षिण-अग्नौ—दक्षिण दिशा की यज्ञ-अग्नि में; अमर्षित:— अत्यन्त क्रुद्ध वीरभद्र; तत्—दक्ष का; देव-यजनम्—देवताओं के यज्ञ की व्यवस्था; दग्ध्वा—आग लगाकर; प्रातिष्ठत्—विदा हुआ; गुह्यक-आलयम्—गुह्यकों के धाम (कैलास) ।.
 
अनुवाद
 
 फिर वीरभद्र ने उस सिर को लेकर अत्यन्त क्रोध से यज्ञ अग्नि की दक्षिण दिशा में आहुति के रूप में डाल दिया। इस प्रकार शिव के अनुचरों ने यज्ञ की सारी व्यवस्था तहस-नहस कर डाली और समस्त यज्ञ क्षेत्र में आग लगाकर अपने स्वामी के धाम, कैलास के लिए प्रस्थान किया।
 
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कंध के अन्तर्गत “दक्ष के यज्ञ का विध्वंस,” नामक पाँचवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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