फिर वीरभद्र ने उस सिर को लेकर अत्यन्त क्रोध से यज्ञ अग्नि की दक्षिण दिशा में आहुति के रूप में डाल दिया। इस प्रकार शिव के अनुचरों ने यज्ञ की सारी व्यवस्था तहस-नहस कर डाली और समस्त यज्ञ क्षेत्र में आग लगाकर अपने स्वामी के धाम, कैलास के लिए प्रस्थान किया।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कंध के अन्तर्गत “दक्ष के यज्ञ का विध्वंस,” नामक पाँचवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
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