श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 5: दक्ष के यज्ञ का विध्वंस  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  4.5.3 
ततोऽतिकायस्तनुवा स्पृशन्दिवं
सहस्रबाहुर्घनरुक् त्रिसूर्यद‍ृक् ।
करालदंष्ट्रो ज्वलदग्निमूर्धज:
कपालमाली विविधोद्यतायुध: ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
तत:—उस समय; अतिकाय:—विशाल शरीर वाला (वीरभद्र); तनुवा—अपने शरीर के साथ; स्पृशन्—स्पर्श करता; दिवम्—आकाश; सहस्र—एक हजार; बाहु:—हाथ; घन-रुक्—श्याम रंग का; त्रि-सूर्य-दृक्—तीन सूर्यों के समानतेज वाला; कराल-दंष्ट्र:—अत्यन्त भयानक दाढ़ों वाला; ज्वलत्-अग्नि—जलती हुई आग (के समान); मूर्धज:—शिर पर बाल धारण किये; कपाल-माली—नरमुंडों की माला पहने; विविध—अनेक प्रकार से; उद्यत—उठाये हुए; आयुध:—हथियारों से लैस ।.
 
अनुवाद
 
 उससे आकाश के समान ऊँचा तथा तीन सूर्यों के सम्मिलित तेज के समान एक भयानक श्याम वर्ण का असुर उत्पन्न हुआ, जिसके दाँत अत्यन्त भयानक थे और उसके सिर के केश प्रज्ज्वलित अग्नि के समान लग रहे थे। उसके हजारों भुजाएँ थीं, जो अस्त्र-शस्त्रों से लैस थीं और उसने नरमुंडों की माला पहन रखी थी।
 
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥