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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 5: दक्ष के यज्ञ का विध्वंस  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  4.5.4 
तं किं करोमीति गृणन्तमाह
बद्धाञ्जलिं भगवान् भूतनाथ: ।
दक्षं सयज्ञं जहि मद्भटानां
त्वमग्रणी रुद्र भटांशको मे ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
तम्—उसको (वीरभद्र को); किम्—क्या; करोमि—करूँ; इति—इस प्रकार; गृणन्तम्—पूछने पर; आह—आदेश दिया; बद्ध-अञ्जलिम्—हाथ जोड़ कर; भगवान्—समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी (शिव); भूत-नाथ:—भूतों के नाथ; दक्षम्—दक्ष को; स-यज्ञम्—उसके यज्ञ सहित; जहि—मारो; मत्-भटानाम्—मेंरे सभी पार्षदों के; त्वम्—तुम; अग्रणी:—प्रमुख; रुद्र—हे रुद्र; भट—हे युद्ध में कुशल; अंशक:—शरीर से उत्पन्न; मे—मेरे ।.
 
अनुवाद
 
 उस महाकाय असुर ने जब हाथ जोड़ कर पूछा, “हे नाथ। मैं क्या करूँ?” भूतनाथ रूप शिव ने प्रत्यक्षत: आदेश दिया, “तुम मेरे शरीर से उत्पन्न होने के कारण मेरे समस्त पार्षदों के प्रमुख हुए, अत: यज्ञ (स्थल) पर जाकर दक्ष को उसके सैनिकों सहित मार डालो।”
 
तात्पर्य
 यहाँ से ब्रह्मतेज तथा शिवतेज में स्पर्धा प्रारम्भ होती है। भृगुमुनि ने ब्रह्मतेज से ऋभु देवों को उत्पन्न किया था, जिन्होंने यज्ञस्थल से शिव के सैनिकों को खदेड़ दिया था। जब शिव ने सुना कि उनके सैनिक भगा दिये गये हैं, तो उन्होंने बदला लेने के लिए वीरभद्र नाम का एक दीर्घकाय काला असुर उत्पन्न किया। कभी-कभी सतोगुण तथा तमोगुण में स्पर्धा चलती है। यही इस संसार की रीति है। भले ही कोई सतोगुणी क्यों न हो, सम्भावना यही है कि उसमें रजोगुण या तमोगुण का भी अंश मिला रहता है। यही भौतिक प्रकृति का नियम है। यद्यपि आध्यात्मिक जगत में शुद्ध सत्त्व ही मूलभूत तत्त्व (सिद्धान्त) है, किन्तु इस जगत में सत्त्व का शुद्ध प्राकट्य कठिन है। इस प्रकार विभिन्न भौतिक गुणों में जीवन-संघर्ष चलता रहता है। प्रजापति दक्ष को लेकर शिव तथा भृगु मुनि के बीच का यह संघर्ष प्रकृति के विभिन्न गुणों के मध्य स्पर्धा का ज्वलन्त उदाहरण है।
 
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