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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 5: दक्ष के यज्ञ का विध्वंस  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  4.5.7 
अथर्त्विजो यजमान: सदस्या:
ककुभ्युदीच्यां प्रसमीक्ष्य रेणुम् ।
तम: किमेतत्कुत एतद्रजोऽभू-
दिति द्विजा द्विजपत्‍न्यश्च दध्यु: ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
अथ—उस समय; ऋत्विज:—पुरोहित; यजमान:—यज्ञ सम्पन्न करने वाला प्रमुख व्यक्ति (दक्ष); सदस्या:—यज्ञस्थल में एकत्र सभी पुरुष; ककुभि उदीच्याम्—उत्तरी दिशा में; प्रसमीक्ष्य—देखकर; रेणुम्—धूल; तम:—अधंकार; किम्—क्या; एतत्— यह; कुत:—वहाँ से; एतत्—यह; रज:—धूल; अभूत्—आई है; इति—इस प्रकार; द्विजा:—ब्राह्मण; द्विज-पत्न्य:—ब्राह्मणों की पत्नियाँ; —तथा; दध्यु:—विचार करने लगीं ।.
 
अनुवाद
 
 उस समय यज्ञस्थल में एकत्रित सभी लोग—पुरोहित, प्रमुख यजमान, ब्राह्मण तथा उनकी पत्नियाँ—आश्चर्य करने लगे कि यह अंधकार कहाँ से आ रहा है। बाद में उनकी समझ में आया कि यह धूलभरी आँधी थी और वे सभी अत्यन्त व्याकुल हो गये थे।
 
 
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