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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 6: ब्रह्मा द्वारा शिवजी को मनाना  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  4.6.21 
कर्णान्त्रैकपदाश्वास्यैर्निर्जुष्टं वृकनाभिभि: ।
कदलीखण्डसंरुद्धनलिनीपुलिनश्रियम् ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
कर्णान्त्र—कर्णांत्र से; एकपद—एकपद; अश्वास्यै:—अश्वास्य से; निर्जुष्टम्—पूर्णत: भोगा हुआ; वृक-नाभिभि:—वृक तथा नाभि (कस्तूरी मृग) द्वारा; कदली—केला के; खण्ड—समूह से; संरुद्ध—आच्छादित; नलिनी—कमलों से भरा सरोवर; पुलिन—रेतीला किनारा; श्रियम्—अत्यन्त सुन्दर ।.
 
अनुवाद
 
 वहाँ पर तरह तरह के मृग पाये जाते हैं, यथा कर्णांत्र, एकपद, अश्वास्य, वृक तथा कस्तूरी मृग। इन मृगों के अतिरिक्त विविध केले के वृक्ष हैं, जो छोटी-छोटी झीलों के तटों को सुशोभित करते हैं।
 
 
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