ययो:—जिन दोनों (नदियों) में; सुर-स्त्रिय:—स्वर्ग की सुन्दरियाँ अपने पतियों समेत; क्षत्त:—हे विदुर; अवरुह्य—उतर कर; स्व-धिष्ण्यत:—अपने-अपने विमानों से; क्रीडन्ति—क्रीड़ा करते हैं; पुंस:—उनके पति; सिञ्चन्त्य:—जल छिडक़ कर; विगाह्य—(जल में) प्रवेश करके; रति-कर्शिता:—जिनका रति-सुख घट चुका है ।.
अनुवाद
हे क्षत्त, है विदुर, स्वर्ग की सुन्दरियाँ अपने-अपने पतियों सहित विमानों से इन नदियों में उतरती हैं और काम-क्रीड़ा के पश्चात् जल में प्रवेश करती हैं तथा अपने पतियों के ऊपर पानी उलीच कर आनन्द उठाती हैं।
तात्पर्य
ऐसा ज्ञात होता है कि स्वर्ग लोक की ललनाएँ भी विषय-सुख के विचारों से दूषित रहती हैं, फलत: वे विमानों में चढक़र नन्दा तथा अलकनन्दा नदियों में स्नान करने आती हैं। यह महत्त्वपूर्ण बात है कि इन दोनों नदियों का जल भगवान् के चरणकमलों की रज से पावन होता रहता है। दूसरे शब्दों में, जिस प्रकार भगवान् नारायण के चरण के अँगूठे से निकलने के कारण गंगा पवित्र है, उसी प्रकार से चाहे जल हो या कोई अन्य वस्तु जब वह भगवान् की भक्ति के सम्पर्क में आती है, तो वह पवित्र और दिव्य हो जाती है। भक्ति के विधि-विधान इस सिद्धान्त पर टिके हैं कि जो वस्तु भगवान् के चरणकमलों के सम्पर्क में आती है, वह भौतिक कल्मष से तुरन्त मुक्त हो जाती है।
स्वर्गलोक की सुन्दरियाँ विषयी जीवन के दूषित विचार लेकर पवित्र नदियों में स्नान के लिए आती हैं और अपने पतियों पर पानी उछाल-उछाल कर आनन्दित होती हैं। इस सम्बन्ध में दो शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। रति-कर्शिता: का अर्थ है कि रति-सुख के पश्चात् सुन्दरियाँ क्लान्त हो जाती हैं। यद्यपि वे शारीरिक आवश्यकता में काम-सुख को स्वीकार करती हैं, किन्तु बाद में वे प्रसन्न नहीं होतीं।
अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भगवान् गोविन्द को तीर्थपाद कहा गया है। तीर्थ का अर्थ है, “पवित्र स्थान” तथा पाद का अर्थ है, “भगवान् के चरणकमल।” लोग पवित्र स्थानों में अपने पापबन्धनों से छूटने के लिए जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जो लोग भगवान् कृष्ण के चरणकमलों में अनुरक्त हैं, वे स्वत: पवित्र हो जाते हैं। भगवान् के चरणकमलों को तीर्थपाद कहा जाता है, क्योंकि उनके संरक्षण में सैकड़ों-हजारों साधु पुरुष तीर्थस्थानों को पवित्र कर देते हैं। गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के महान् आचार्य श्रील नरोत्तमदास ठाकुर का उपदेश है कि हमें विभिन्न तीर्थस्थानों में जाने की आवश्यकता नहीं है। निस्सन्देह, एक स्थान से दूसरे स्थान तक की यात्रा कष्टदायक है, किन्तु जो बुद्धिमान होता है, वह गोविन्द के चरणकमलों की शरण में जा सकता है, जिससे वह अपनी तीर्थ यात्रा के परिणामस्वरूप स्वत: शुद्ध हो जाता है। जो कोई भी गोविन्द के चरणकमल की सेवा में अटल है, वह तीर्थपाद है, उसे तीर्थस्थलों में भ्रमण करने की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि भगवान् के चरणकमलों की सेवा में लिप्त रह कर वह ऐसी यात्रा के समस्त लाभ उठा सकता है। ऐसा शुद्ध भक्त जो भगवान् के चरणकमलों में अटूट श्रद्धा रखता है विश्व के किसी भी भाग में जहां रहने का वह निर्णय लेता है, तीर्थ स्थान बन जाता है। तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि (भागवत १.१३.१०)। ऐसे स्थान शुद्ध भक्तों की उपस्थिति के कारण पवित्र हो जाते हैं, यदि भगवान् या उनका शुद्ध भक्त किसी स्थान में रहता है, तो वह स्वत: तीर्थस्थल में परिणत हो जाता है। दूसरे शब्दों में, ऐसा शुद्ध भक्त जो शत प्रतिशत भगवान् की सेवा में तन्मय रहता है, विश्व के किसी भी भाग में रह सकता है और वह स्थान शीघ्र ही पवित्र स्थल बन जाता है, जहाँ वह भगवान् की इच्छानुसार उनकी सेवा कर सकता है।
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