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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 6: ब्रह्मा द्वारा शिवजी को मनाना  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  4.6.29 
रक्तकण्ठखगानीकस्वरमण्डितषट्पदम् ।
कलहंसकुलप्रेष्ठं खरदण्डजलाशयम् ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
रक्त—लाल; कण्ठ—गर्दन; खग-अनीक—अनेक पक्षियों का; स्वर—मीठी बोली से; मण्डित—सुशोभित; षट्-पदम्—भौंरे; कलहंस-कुल—हंसों के झुंडों का; प्रेष्ठम्—अत्यन्त प्रिय; खर-दण्ड—कमल पुष्प; जल-आशयम्—झील, सरोवर ।.
 
अनुवाद
 
 उस नैसर्गिक वन में अनेक पक्षी थे जिनकी गर्दन लाल रंग की थीं और उनका कलरव भौंरों के गुंजार से मिल रहा था। वहाँ के सरोवर शब्द करते हंसों के समूहों तथा लम्बे नाल वाले कमल पुष्पों से सुशोभित थे।
 
तात्पर्य
 सरोवरों के कारण वन की शोभा में चार चाँद लग रहे थे। यहाँ यह बताया गया है कि सरोवर कमलपुष्पों तथा हंसों से सुशोभित थे। ये हंस क्रीड़ा कर रहे थे और पक्षियों तथा गुंजरित भौंरों के साथ-साथ गा रहे थे। इन सब विशेषताओं से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वह स्थान कितना रमणीक था और वहाँ से निकलने वाले देवता उस वातावरण में कितना सुख अनुभव कर रहे थे। इस पृथ्वीलोक में मनुष्यों ने अनेक मार्ग तथा सुन्दर स्थल निर्मित किये हैं, किन्तु उनमें से कोई भी कैलास के स्थलों से बढक़र नहीं होगा, जैसाकि इन श्लोकों में वर्णित है।
 
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