श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 6: ब्रह्मा द्वारा शिवजी को मनाना  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  4.6.32 
स योजनशतोत्सेध: पादोनविटपायत: ।
पर्यक्‍कृताचलच्छायो निर्नीडस्तापवर्जित: ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह वट वृक्ष; योजन-शत—एक सौ योजन (आठ सौ मील); उत्सेध:—उँचाई; पाद-ऊन—एक चौथाई कम (छह सौ मील); विटप—शाखाओं से; आयत:—फैला हुआ; पर्यक्—चारों ओर; कृत—बना हुआ; अचल—स्थिर; छाय:—छाया; निर्नीड:—बिना घोंसले का; ताप-वर्जित:—तापरहित, गर्मी से रहित ।.
 
अनुवाद
 
 वह वट वृक्ष आठ सौ मील ऊँचा था और उसकी शाखाएँ चारों ओर छह सौ मील तक फैली थीं। उसकी मनोहर छाया से सतत शीतलता छाई थी, तो भी पक्षियों की गूँज सुनाई नहीं पड़ रही थी।
 
तात्पर्य
 सामान्य रूप से प्रत्येक वृक्ष में पक्षियों के घोंसले रहते हैं और शाम को सारे पक्षी एकत्र होकर शोर करते हैं। किन्तु ऐसा लगता है कि इस वट वृक्ष में घोंसले न थे जिससे वह शान्त था। शोर अथवा गर्मी न होने से यह स्थान ध्यान के लिए सर्वथा उपयुक्त था।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥