श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 6: ब्रह्मा द्वारा शिवजी को मनाना  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  4.6.33 
तस्मिन्महायोगमये मुमुक्षुशरणे सुरा: ।
दद‍ृशु: शिवमासीनं त्यक्तामर्षमिवान्तकम् ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मिन्—उस वृक्ष के नीचे; महा-योग-मये—परमेश्वर के ध्यान में मग्न अनेक साधुओं से युक्त; मुमुक्षु—मुक्ति की कामना करने वाले; शरणे—आश्रय; सुरा:—देवताओं ने; ददृशु:—देखा; शिवम्—शिव को; आसीनम्—आसन लगाये; त्यक्त-अमर्षम्— क्रोधरहित; इव—मानों; अन्तकम्—अनन्त काल ।.
 
अनुवाद
 
 देवताओं ने शिव को, जो योगियों को सिद्धि प्रदान करने एवं समस्त लोगों का उद्धार करने में सक्षम थे, उस वृक्ष के नीचे आसीन देखा। अनन्त काल के समान गम्भीर, शिवजी ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो समस्त क्रोध का परित्याग कर चुके हों।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में महायोगमये शब्द अत्यन्त सार्थक है। योग का अर्थ है भगवान् का ध्यान और महायोग का अर्थ है, जो विष्णु की भक्ति में तल्लीन रहते हैं। ध्यान का तात्पर्य है स्मरण करना। भक्ति नौ प्रकार की है, जिसमें स्मरणम् भी एक क्रिया है। इसमें योगी अपने हृदय में विष्णु के रूप का स्मरण करता है। इस तरह उस वट वृक्ष के नीचे अनेक भक्त विष्णु के ध्यान में लगे थे।

महा शब्द संस्कृत के महत् से निकला है। इसका प्रयोग बड़ी संख्या या मात्रा बताने के लिए होता है, अत: महा-योग से सूचित होता है कि वहाँ अनेक बड़े-बड़े योगी तथा भक्त थे, जो विष्णु के रूप का ध्यान धर रहे थे। सामान्य रूप से ऐसे ध्यानकर्ता भव-बन्धन से मुक्ति पाने के इच्छुक रहते हैं और वे वैकुण्ठलोक को जाते हैं। मुक्ति का अर्थ है भव-बन्धन या अज्ञान से छुटकारा। इस भौतिक जगत में हम जन्म-जन्मांतर अपने देहबोध के कारण कष्ट भोगते हैं और दुखमय जीवन से छुटकारा ही मुक्ति है।

 
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