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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 6: ब्रह्मा द्वारा शिवजी को मनाना  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  4.6.34 
सनन्दनाद्यैर्महासिद्धै: शान्तै: संशान्तविग्रहम् ।
उपास्यमानं सख्या च भर्त्रा गुह्यकरक्षसाम् ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
सनन्दन-आद्यै:—सनन्दन इत्यादि चारों कुमार; महा-सिद्धै:—मुक्त जीव; शान्तै:—साधु प्रकृति का; संशान्त-विग्रहम्—गम्भीर तथा साधु प्रकृति वाले शिव; उपास्यमानम्—प्रशंसित; सख्या—कुबेर द्वारा; —तथा; भर्त्रा—स्वामी द्वारा; गुह्यक-रक्षसाम्— गुह्यकों तथा राक्षसों द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 वहाँपर शिवजी कुबेर, गुह्यकों के स्वामी तथा चारों कुमारों जैसी मुक्तात्माओं से घिरे हुए बैठे थे। शिवजी अत्यन्त गम्भीर एवं शान्त थे।
 
तात्पर्य
 शिवजी के साथ आसीन पुरुष महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि चारों कुमार जन्म से ही मुक्त थे। यहाँ यह स्मरणीय है कि इन चारों कुमारों के पिता ने उनसे विवाह करने और नवसृजित ब्रह्माण्ड में प्रजा बढ़ाने के लिए अनुरोध किया था, किन्तु उन्होंने मना कर दिया था और उस समय ब्रह्माजी अत्यन्त क्रुद्ध हुए थे। उसी क्रुद्ध स्थिति में रुद्र या शिव का जन्म हुआ। इस प्रकार वे परस्पर घनिष्ठ थे। कुबेर, जो देवताओं के कोषाध्यक्ष हैं, अत्यधिक धनवान हैं। इस प्रकार से कुमारों तथा कुबेर के साथ उनकी घनिष्ठता से आभास होता है कि उनके पास समस्त दिव्य एवं भौतिक ऐश्वर्य हैं। वस्तुत: वे परमेश्वर के गुणात्मक अवतार हैं, अत: उनका पद अत्यन्त सम्माननीय है।
 
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