श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 6: ब्रह्मा द्वारा शिवजी को मनाना  »  श्लोक 36
 
 
श्लोक  4.6.36 
लिङ्गं च तापसाभीष्टं भस्मदण्डजटाजिनम् ।
अङ्गेन सन्ध्याभ्ररुचा चन्द्रलेखां च बिभ्रतम् ॥ ३६ ॥
 
शब्दार्थ
लिङ्गम्—चिह्न; च—तथा; तापस-अभीष्टम्—शैव साधुओं द्वारा वांछित; भस्म—राख; दण्ड—डंडा; जटा—जटाजूट; अजिनम्—मृग चर्म; अङ्गेन—अपने शरीर से; सन्ध्या-आभ्र—लाल लाल; रुचा—रँगा हुआ; चन्द्र-लेखाम्—अर्द्धचन्द्र कला; च—तथा; बिभ्रतम्—धारण किये ।.
 
अनुवाद
 
 वे मृगचर्म पर आसीन थे और सभी प्रकार की तपस्या कर रहे थे। शरीर में राख लगाये रहने से वे संध्याकालीन बादल की भाँति दिखाई पड़ रहे थे। उनकी जटाओं में अर्द्धचन्द्र का चिह्न था, जो सांकेतिक प्रदर्शन है।
 
तात्पर्य
 शिव की तपस्या के चिह्न वैष्णवों जैसे नहीं होते। वे सर्वश्रेष्ठ वैष्णव तो हैं, किंन्तु वे मनुष्यों की एक ऐसी विशेष श्रेणी के लिए लक्षण प्रदर्शित करते हैं, जो वैष्णव नियमों का पालन नहीं कर सकते। शिव के अनुयायी शैव सामान्य रूप से शिव की ही भाँति वेष बनाते हैं और कभी-कभी वे गांजा तथा मादक द्रव्यों का सेवन करते हैं। वैष्णव धर्म के अनुयायी ऐसी आदतों को कभी स्वीकार नहीं कर सकते।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥