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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 6: ब्रह्मा द्वारा शिवजी को मनाना  »  श्लोक 37
 
 
श्लोक  4.6.37 
उपविष्टं दर्भमय्यां बृस्यां ब्रह्म सनातनम् ।
नारदाय प्रवोचन्तं पृच्छते श‍ृण्वतां सताम् ॥ ३७ ॥
 
शब्दार्थ
उपविष्टम्—बैठे हुए; दर्भ-मय्याम्—दर्भ से बने; बृस्याम्—चटाई (आसन) पर; ब्रह्म—परम सत्य; सनातनम्—शाश्वत; नारदाय—नारद को; प्रवोचन्तम्—बोलते हुए; पृच्छते—पूछते हुए; शृण्वताम्—सुनते हुए; सताम्—साधु पुरुषों का ।.
 
अनुवाद
 
 वे तृण (कुश) के आसन पर बैठे थे और वहाँ पर उपस्थित सबों को, विशेषरूप से नारद मुनि, को परम सत्य के विषय में उपदेश दे रहे थे।
 
तात्पर्य
 शिवजी कुशासन पर बैठे थे, क्योंकि परम सत्य के विषय में ज्ञान प्राप्त करने के लिए तपस्या करने वाले लोग ऐसा ही आसन चुनते हैं। इस श्लोक में विशेषरूप से उल्लेख है कि वे सुविख्यात नारदमुनि से संभाषण कर रहे थे। नारद भक्ति के विषय में शिव से पूछ रहे थे और शिवजी सर्वश्रेष्ठ वैष्णव होने के नाते उन्हें उपदेश दे रहे थे। कहने का तात्पर्य यह है कि शिव तथा नारद वेद- ज्ञान की चर्चा कर रहे थे, किन्तु विषय था भक्ति। इस सम्बन्ध में दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि शिव महान् उपदेशक हैं और नारद मुनि एक महान् श्रोता हैं। अत: वैदिक ज्ञान का प्रमुख विषय भक्ति है।
 
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