श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 6: ब्रह्मा द्वारा शिवजी को मनाना  »  श्लोक 39
 
 
श्लोक  4.6.39 
तं ब्रह्मनिर्वाणसमाधिमाश्रितं
व्युपाश्रितं गिरिशं योगकक्षाम् ।
सलोकपाला मुनयो मनूनाम्
आद्यं मनुं प्राञ्जलय: प्रणेमु: ॥ ३९ ॥
 
शब्दार्थ
तम्—उसको (शिव को); ब्रह्म-निर्वाण—ब्रह्मानन्द में; समाधिम्—समाधि में; आश्रितम्—लीन; व्युपाश्रितम्—टेके हुए; गिरिशम्—शिव; योग-कक्षाम्—अपने बायें घुटने को गांठदार कपड़े से मजबूती से कसे; स-लोक-पाला:—देवताओं सहित (इन्द्र इत्यादि); मुनय:—साधुगण; मनूनाम्—समस्त चिन्तकों का; आद्यम्—प्रमुख; मनुम्—चिन्तक; प्राञ्जलय:—हाथ जोड़े; प्रणेमु:—प्रणाम किया ।.
 
अनुवाद
 
 समस्त मुनियों तथा इन्द्र आदि देवताओं ने हाथ जोडक़र शिवजी को सादर प्रणाम किया। शिवजी ने केसरिया वस्त्र धारण कर रखा था और समाधि में लीन थे जिससे वे समस्त साधुओं में अग्रणी प्रतीत हो रहे थे।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में ब्रह्मानन्द शब्द महत्त्वपूर्ण है। ब्रह्मानन्द या ब्रह्म-निर्वाण की व्याख्या प्रह्लाद महाराज ने की है। जब मनुष्य अधोक्षज अर्थात् भगवान् में, जो भौतिक पुरुषों की ज्ञानेन्द्रियों के परे हैं, पूर्णतया लीन हो जाता है, तो वह ब्रह्मानन्द पद पर स्थित होता है।

भगवान् के अस्तित्व, नाम, रूप, गुण तथा लीलाओं के विषय में कोई धारणा बनाना कठिन है क्योंकि वे भौतिकतावादी पुरुषों की अवधारणा से परे स्थित हैं। चूँकि भौतिकतावादी पुरुष न तो ईश्वर के सम्बध में कुछ सोच-विचार सकते हैं, और न कोई धारणा बना सकते हैं, अत: वे ईश्वर को मृत मानते हैं, किन्तु वास्तव में भगवान् अपने सच्चिदानन्द रूप में सदैव विद्यमान रहते हैं। ईश्वर के रूप में केन्द्रित करके निरन्तर ध्यान करना समाधि है। समाधि का अर्थ है केन्द्रीभूत ध्यान, अत: जो व्यक्ति भगवान् का सतत ध्यान करने की योग्यता रखता है, वह सदैव समाधि में रहता समझा जाता है और वह ब्रह्म-निर्वाण या ब्रह्मानन्द का आनन्द लेता है। शिवजी में ये लक्षण प्रकट थे, अतएव यह कहा गया है कि वे ब्रह्मानन्द में लीन थे।

अन्य महत्त्वपूर्ण शब्द है योग-कक्षाम्। योगकक्षा एक आसन है, जिसमें बाईं जाँघ को केसरिया रंग के गाँठदार वस्त्र के नीचे दृढ़ता से स्थिर रखा जाता है। यहाँ पर मनूनाम् आद्यम् शब्द भी सार्थक है, क्योंकि उनसे दार्शनिक अथवा विचारपूर्ण व्यक्ति का बोध होता है। ऐसा व्यक्ति मनु कहलाता है। इस श्लोक में शिव को विचारवान व्यक्तियों का मुखिया कहा गया है। निस्सन्देह, शिव कभी व्यर्थ चिन्तन में अपने को संलग्न नहीं करते, किन्तु, जैसाकि पिछले श्लोक में कहा गया है, वे असुरों को उनकी पतित अवस्था से उबारने के लिए सदैव चिन्तित रहते हैं। कहा जाता है कि चैतन्य महाप्रभु के काल में सदाशिव अद्वैत प्रभु के रूप में प्रकट हुए और अद्वैत प्रभु का मुख्य कार्य था पतित आत्माओं को उबार कर कृष्णभक्ति में लगाना। चूँकि लोग अपने को वृथा के कार्यों में लगाये रहते थे जिससे उनकी भौतिक सत्ता बनी रहे, अत: भगवान् शिव ने अपने अद्वैत रूप में परमेश्वर से प्रार्थना की कि वे भगवान् चैतन्य के रूप में प्रकट हों, जिससे मोहग्रस्त जीवों का उद्धार हो सके। वस्तुत: अद्वैत प्रभु की प्रार्थना पर ही भगवान् चैतन्य का आविर्भाव हुआ। इसी प्रकार शिवजी का एक सम्प्रदाय है, जिसे रुद्र सम्प्रदाय कहते हैं। वे सदैव पतित आत्माओं के उद्धार के विषय में सोचते रहते हैं, जैसाकि अद्वैत प्रभु ने किया।

 
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