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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 6: ब्रह्मा द्वारा शिवजी को मनाना  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  4.6.40 
स तूपलभ्यागतमात्मयोनिं
सुरासुरेशैरभिवन्दिताङ्‌घ्रि: ।
उत्थाय चक्रे शिरसाभिवन्दन-
मर्हत्तम: कस्य यथैव विष्णु: ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
स:—शिव; तु—लेकिन; उपलभ्य—देखकर; आगतम्—आया हुआ; आत्म-योनिम्—ब्रह्मा को; सुर-असुर-ईशै:—सर्वश्रेष्ठ देवताओं तथा असुरों द्वारा; अभिवन्दित-अङ्घ्रि:—जिनके चरण पूजित हैं; उत्थाय—खड़े होकर; चक्रे—किया; शिरसा—शिर से; अभिवन्दनम्—सादर नमस्कार; अर्हत्तम:—वामनदेव ने; कस्य—कश्यप का; यथा एव—जिस प्रकार; विष्णु:—विष्णु ।.
 
अनुवाद
 
 शिवजी के चरणकमल देवताओं तथा असुरों द्वारा समान रूप से पूज्य थे, फिर भी अपने उच्च पद की परवाह न करके उन्होंने ज्योंही देखा कि अन्य देवताओं में ब्रह्मा भी हैं, तो वे तुरन्त खड़े हो गये और झुक कर उनके चरणकमलों का स्पर्श करके उनका सत्कार किया, जिस प्रकार वामनदेव ने कश्यप मुनि को सादर नमस्कार किया था।
 
तात्पर्य
 कश्यप मुनि जीवात्माओं की श्रेणी में थे, किन्तु उनके एक दिव्य पुत्र वामनदेव हुआ जो विष्णु का अवतार था। इस तरह वामनदेव ने भगवान् होते हुए भी कश्यप मुनि को नमस्कार किया। इसी प्रकार जब भगवान् कृष्ण बालक थे तो वे अपने माता तथा पिता नन्द-यशोदा को नमस्कार करते थे। यही नहीं, कुरुक्षेत्र के युद्ध में भी भगवान् कृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर के पाँव छुए थे, क्योंकि वे ज्येष्ट थे। तो ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् हों या शिव तथा अन्य भक्त, सबों ने अपने-अपने उच्च पद के बावजूद उदाहरण प्रस्तुत करते हुए शिक्षा दी कि किस प्रकार अपने गुरुजनों को नमस्कार करना चाहिए। शिव ने ब्रह्माजी को नमस्कार किया, क्योंकि वे उनके पिता थे, जिस प्रकार से कश्यप मुनि वामन के पिता थे।
 
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