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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 6: ब्रह्मा द्वारा शिवजी को मनाना  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  4.6.41 
तथापरे सिद्धगणा महर्षिभि-
र्ये वै समन्तादनु नीललोहितम् ।
नमस्कृत: प्राह शशाङ्कशेखरं
कृतप्रणामं प्रहसन्निवात्मभू: ॥ ४१ ॥
 
शब्दार्थ
तथा—उसी प्रकार; अपरे—अन्य; सिद्ध-गणा:—सिद्ध जन; महा-ऋषिभि:—बड़े-बड़े ऋषियों सहित; ये—जो; वै— निस्सन्देह; समन्तात्—चारों ओर से; अनु—पीछे; नीललोहितम्—शिव; नमस्कृत:—नमस्कार करते हुए; प्राह—कहा; शशाङ्क शेखरम्—शिव से; कृत-प्रणामम्—प्रणाम करके; प्रहसन्—हँसते हुए; इव—सदृश्य; आत्मभू:—ब्रह्मा ने ।.
 
अनुवाद
 
 शिवजी के साथ जितने भी ऋषि, यथा नारद आदि, बैठे हुए थे उन्होंने भी ब्रह्मा को सादर नमस्कार किया। इस प्रकार पूजित होकर शिव से ब्रह्मा हँसते हुए कहने लगे।
 
तात्पर्य
 ब्रह्मा हँस रहे थे, क्योंकि उन्हें पता था कि शिवजी जिस प्रकार जल्दी प्रसन्न होते हैं उसी तरह वे जल्दी क्रुद्ध भी हो जाते हैं। उन्हें भय था कि वे कहीं क्रुद्ध न हों, क्योंकि उनकी पत्नी का निधन हो चुका था और वे दक्ष द्वारा अपमानित हो चुके थे। अत: अपने भय को छिपाने के लिए वे हँसे और शिव को इस प्रकार से सम्बोधित किया।
 
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