त्वम्—आपने; एव—निश्चय ही; धर्म-अर्थ-दुघ—धर्म तथा आर्थिक विकास से प्राप्त लाभ; अभिपत्तये—उनकी रक्षा हेतु; दक्षेण—दक्ष द्वारा; सूत्रेण—निमित्त बनाते हुए; ससर्जिथ—उत्पन्न किया; अध्वरम्—यज्ञ; त्वया—तुम्हारे द्वारा; एव—निश्चय ही; लोके—इस संसार में; अवसिता:—संयमित; च—तथा; सेतव:—वर्णाश्रम संस्था की मर्यादाएँ; यान्—जो; ब्राह्मणा:—ब्राह्मण वर्ग; श्रद्दधते—अत्यधिक सम्मान करते हैं; धृत-व्रता:—व्रत लेकर ।.
अनुवाद
हे भगवान्, आपने दक्ष को माध्यम बनाकर यज्ञ-प्रथा चलाई है, जिससे मनुष्य धार्मिक कृत्य तथा आर्थिक विकास का लाभ उठा सकता है। आपके ही नियामक विधानों से चारों वर्णों तथा आश्रमों को सम्मानित किया जाता है। अत: ब्राह्मण इस प्रथा का दृढ़तापूर्वक पालन करने का व्रत लेते हैं।
तात्पर्य
वर्ण तथा आश्रम की वैदिक प्रणाली की कभी भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए क्योंकि मानव समाज में सामाजिक तथा धार्मिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए ही भगवान् ने स्वयं ये विभाग किये। ब्राह्मणों को समाज का बुद्धिजीवी वर्ग होने के नाते इस विधि-विधान का दृढ़ता से पालन करने का व्रत लेना चाहिए। इस कलियुग में वर्गहीन समाज का निर्माण करने तथा वर्ण एवं आश्रम के नियमों का पालन न करने की प्रवृत्ति एक असम्भव स्वप्न का प्राकट्य है। सामाजिक तथा आध्यात्मिक व्यवस्था के विनाश से वर्गहीन समाज की कल्पना कभी भी साकार नहीं हो सकती। मनुष्यों को स्रष्टा की तुष्टि के लिए वर्ण तथा आश्रम के नियमों का कड़ाई से पालन करना चाहिए, क्योंकि भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण द्वारा कहा गया है कि चारों वर्णों की सृष्टि भगवान् द्वारा हुई। उन्हें इसी के अनुसार कार्य करना चाहिए और ईश्वर को प्रसन्न रखना चाहिए, जिस प्रकार शरीर के भिन्न भिन्न अंग उसकी सेवा में लगे रहते हैं। अपने विराट-रूप में ही पुरुषोत्तम भगवान् पूर्ण हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र ईश्वर के विराट रूप के क्रमश: मुख, बाहु, उदर तथा पाँव हैं। जब तक वे परम पूर्ण स्वरूप की सेवा में लगे रहते हैं, तभी तक उनका पद सुरक्षित है, अन्यथा वे पक्ष-भ्रष्ट होने से पतित हो जाते हैं।
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