श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 6: ब्रह्मा द्वारा शिवजी को मनाना  »  श्लोक 45
 
 
श्लोक  4.6.45 
त्वं कर्मणां मङ्गल मङ्गलानां
कर्तु: स्वलोकं तनुषे स्व: परं वा ।
अमङ्गलानां च तमिस्रमुल्बणं
विपर्यय: केन तदेव कस्यचित् ॥ ४५ ॥
 
शब्दार्थ
त्वम्—आप; कर्मणाम्—कर्तव्यों का; मङ्गल—हे परम शुभ; मङ्गलानाम्—शुभ करने वालों का; कर्तु:—कर्ता का; स्व लोकम्—क्रम से उच्च लोक; तनुषे—विस्तार करते हैं; स्व:—स्वर्गलोक; परम्—दिव्य लोक; वा—अथवा; अमङ्गलानाम्— अमंगल का; च—तथा; तमिस्रम्—तमिस्र नरक; उल्बणम्—घोर; विपर्यय:—उल्टा; केन—क्यों; तत् एव—निश्चय ही वह; कस्यचित्—किसी के लिए ।.
 
अनुवाद
 
 हे परम मंगलमय भगवान्, आपने स्वर्गलोक, वैकुण्ठलोक तथा निर्गुण ब्रह्मलोक को शुभ कर्म करने वालों का गन्तव्य निर्दिष्ट किया है। इसी प्रकार जो दुराचारी हैं उनके लिए अत्यन्त घोर नरकों की सृष्टि की है। तो भी कभी-कभी ये गन्तव्य उलट जाते हैं। इसका कारण तय कर पाना अत्यन्त कठिन है।
 
तात्पर्य
 भगवान् को परमेच्छा कहा गया है। परमेच्छा से ही प्रत्येक घटना घटती है। इसीलिए कहा जाता है कि उनकी इच्छा के बिना एक पत्ती भी नहीं हिल सकती। सामान्य रूप से नियम यह है कि शुभ कर्म करने वाले स्वर्गलोक को जाते हैं, भक्तजन वैकुण्ठलोक को जाते हैं और निर्गुण चिन्तक निर्गुण ब्रह्म तेज में पद पाते हैं। किन्तु कभी-कभी ऐसा होता है कि अजामिल जैसे पापी केवल नारायण का नाम लेने से तुरन्त ही वैकुण्ठलोक को प्राप्त होते हैं। यद्यपि अजामिल अपने पुत्र नारायण को पुकार रहा था, किन्तु भगवान् नारायण ने इसे गम्भीरता से ग्रहण करते हुए उसके पापपूर्ण कर्मों के बावजूद उसे वैकुण्ठलोक भेज दिया। इसी प्रकार राजा दक्ष सदैव यज्ञों के शुभ कर्म में लगा रहता था, किन्तु शिव से रंच मनमुटाव के कारण उसे घोर रूप से दण्डित किया गया। अत: निष्कर्ष यह निकला हि परमेश्वर की इच्छा ही अन्तिम निर्णय है; कोई उसमें तर्क-वितर्क नहीं कर सकता। अत: शुद्ध भक्त सभी परिस्थितियों में भगवान् की परम इच्छा के सम्मुख आत्म-समर्पण कर देता है और उसे ही सर्व- मंगलमय मानता है।

तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम्।

हृद्वाग्वपुर्भिर्विदधन्नमस्ते जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥

(भागवत १०.१४.८) इस श्लोक का सारांश यह है कि जब किसी भक्त पर कोई विपत्ति आती है, तो वह इसे परमेश्वर का आशीर्वाद मान कर स्वीकार करता है और अपने विगत दुष्कर्मों का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लेता है। ऐसी स्थिति में वह अधिक भक्ति करता है और विचलित नहीं होता। जो व्यक्ति भक्ति में लगा रह कर ऐसी मानसिक स्थिति में रहता है, वही वैकुण्ठलोक का भागी है। दूसरे शब्दों में, ऐसे भक्त को प्रत्येक दशा में वैकुण्ठलोक की प्राप्ति होती है।

 
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