जो लोग भेद-बुद्धि से प्रत्येक वस्तु को देखते हैं, जो केवल सकाम कर्मों में लिप्त रहते हैं, जो तुच्छबुद्धि हैं, जो अन्यों के उत्कर्ष को देखकर दुखी होते हैं और उन्हें कटु तथा मर्मभेदी वचनों से पीड़ा पहुँचाते रहते हैं, वे तो पहले से विधाता द्वारा मारे जा चुके हैं। अत: आप जैसे महान् पुरुष द्वारा उनको फिर से मारने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।
तात्पर्य
जो व्यक्ति भौतिकतावादी हैं, जो भौतिक लाभ के लिए सकाम कर्मों में लगे रहते हैं, वे अन्यों का उत्कर्ष नहीं देख सकते। केवल कतिपय कृष्ण-भक्तों को छोडक़र, सारा विश्व ऐसे ईर्ष्यालु लोगों से पूर्ण है, जो सदैव चिन्ताओं से ग्रस्त रहते हैं, क्योंकि वे शरीर के प्रति आसक्त हैं और आत्म- साक्षात्कार से रहित हैं। चूँकि उनके हृदय सदैव चिन्ता से ग्रस्त रहते हैं, अत: यह मान लेना चाहिए कि विधाता ने उन्हें पहले ही मार दिया है। अत: स्वरूपसिद्ध वैष्णव होने के नाते शिवजी को सलाह दी गई कि वे दक्ष का वध न करें। वैष्णव को पर-दुख-दुखी कहा जाता है, क्योंकि यद्यपि वह किसी भी अवस्था में स्वयं दुखी नहीं होता, किन्तु अन्यों के दुख से दुखी रहता है। अत: वैष्णव को चाहिए कि न तो शरीर, न ही मन के किसी कर्म द्वारा किसी का वध करने का यत्न करे, किन्तु उसे चाहिए कि दयावश वह अन्यों में कृष्ण-चेतना जगाने का प्रयास करे। कृष्णभावनामृत आन्दोलन संसार के ईष्यालु मनुष्यों को माया के चंगुल से छुड़ाने के लिए ही प्रारम्भ किया गया है। यद्यपि कभी-कभी भक्त संकट में फँस जाते हैं, किन्तु सब कुछ सहकर वे कृष्णभावनामृत को अग्रसर करते हैं। भगवान् चैतन्य का उपदेश है—
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि: ॥
“अपने को तिनके से भी तुच्छ मानकर विनम्र भाव से मनुष्य को भगवान् के पवित्र नाम का जाप करना चाहिए। मनुष्य को वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु होना चाहिए, उसे अहंकार से रहित होना चाहिए और अन्यों का आदर करने के लिए उद्यत रहना चाहिए। ऐसी स्थिति में ही मनुष्य भगवान् के पवित्र नाम का निरन्तर जाप कर सकता है।” (शिक्षाष्टक ३) वैष्णव को चाहिए कि वह हरिदास ठाकुर, नित्यानंद प्रभु जैसे वैष्णवों का तथा भगवान् जीसस क्राइस्ट का अनुकरण करे। पहले से मारे गये किसी को पुन: मारने की आवश्यकता नहीं है। किन्तु स्मरण रहे कि वैष्णव को विष्णु या वैष्णवों की निन्दा नहीं सहनी चाहिए, भले ही वह अपनी निन्दा सहन कर ले।
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