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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 6: ब्रह्मा द्वारा शिवजी को मनाना  »  श्लोक 48
 
 
श्लोक  4.6.48 
यस्मिन्यदा पुष्करनाभमायया
दुरन्तया स्पृष्टधिय: पृथग्दृश: ।
कुर्वन्ति तत्र ह्यनुकम्पया कृपां
न साधवो दैवबलात्कृते क्रमम् ॥ ४८ ॥
 
शब्दार्थ
यस्मिन्—किसी स्थान में; यदा—जब; पुष्कर-नाभ-मायया—पुष्करनाभ अर्थात् भगवान् की माया से; दुरन्तया—दुर्लंघ्य; स्पृष्ट-धिय:—मोहित; पृथक्-दृश:—भिन्न-भिन्न प्रकार से देखने वाले पुरुष; कुर्वन्ति—करते हैं; तत्र—वहाँ; हि—निश्चय ही; अनुकम्पया—दयावश; कृपाम्—कृपा, अनुग्रह; —कभी नहीं; साधव:—साधु पुरुष; दैव-बलात्—विधाता द्वारा; कृते— किया गया; क्रमम्—शौर्य ।.
 
अनुवाद
 
 हे भगवान्, यदि कहीं भगवान् की दुर्लंघ्य माया से पहले से मोहग्रस्त भौतिकतावादी (संसारी) कभी-कभी पाप करते हैं, तो साधु पुरुष दया करके इन पापों को गम्भीरता से नहीं लेता। यह जानते हुए कि वे माया के वशीभूत होकर पापकर्म करते हैं, वह उनका प्रतिघात करने में अपने शौर्य का प्रदर्शन नहीं करता।
 
तात्पर्य
 कहा गया है कि तपस्वी का अलंकार तो क्षमाशीलता है। संसार के आध्यात्मिक इतिहास में बहुत से ऐसे उदाहरण हैं, जब अनेक साधु पुरुषों को वृथा ही पीडि़त किया गया, किन्तु समर्थ होते हुए भी उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। उदाहरणार्थ, परीक्षित महाराज को एक ब्राह्मण बालक ने वृथा ही शाप दे दिया था और यद्यपि बालक के पिता ने खेद व्यक्त किया था, किन्तु महाराज परीक्षित ने शाप स्वीकार किया और ब्राह्मण बालक के इच्छानुसार एक सप्ताह के भीतर मर जाना स्वीकार कर लिया। महाराज परीक्षित सम्राट थे और भौतिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों से पूर्ण थे, किन्तु ब्राह्मण जाति के प्रति सम्मान एवं दया के कारण उन्होंने ब्राह्मण बालक के कर्म को रोका नहीं, वरन् सात दिनों के भीतर मरना स्वीकार कर लिया। चूँकि भगवान् कृष्ण चाहते थे कि परीक्षित महाराज इस दण्ड को स्वीकार करें जिससे श्रीमद्भागवत की शिक्षा विश्व में प्रकट हो, फलत: परीक्षित महाराज को उपदेश दिया गया कि वे कोई बदला न लें। वैष्णव अन्यों के लाभ के लिए सहिष्णु होता है। जब वह अपने शौर्य को नहीं प्रदर्शित करता तो इससे यह नहीं सूचित होता कि उसमें शक्ति का अभाव है, वरन् इससे यह पता चलता है कि वह सम्पूर्ण मानव समाज के कल्याण के लिए सहिष्णु है।
 
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