वैष्णव कभी भी बहिरंगा शक्ति के प्रभाव से मोहित नहीं होता, क्योंकि वह भगवान् की प्रेमाभक्ति में लगा रहता है। श्रीकृष्ण भगवद्गीता (७.१४) में कहते हैं— दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यताया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
“मेरी यह दैवी शक्ति अर्थात् त्रिगुणमयी माया से पार पाना दुष्कर है। परन्तु जो मेरी शरण में आ जाते हैं, वे इसे सुगमतापूर्वक तर जाते हैं।” वैष्णव को चाहिए कि माया से मोहित लोगों पर क्रुद्ध होने के बजाय उन का ख्याल रखें, क्योंकि वैष्णव की कृपा के बिना वे माया के चंगुल से नहीं छूट सकते। जो माया द्वारा तिरस्कृत हो चुके हैं उनकी रक्षा भक्तों की अनुकम्पा से होती है।
वाञ्छाकल्पतरुभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नम: ॥
“मैं भगवान् के समस्त वैष्णव भक्तों को सादर नमस्कार करता हूँ। वे कल्पतरु के समान हैं, जो सबकी इच्छाओं को पूरा करने वाले हैं। वे पतित बद्ध आत्माओं के लिए दया से ओत-प्रोत रहते हैं।” जो माया के वश में हैं, वे सकाम कर्म के प्रति आकर्षित होते हैं, किन्तु वैष्णव उपदेशक उनके हृदयों को भगवान् श्रीकृष्ण की ओर आकर्षित करता है।