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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 6: ब्रह्मा द्वारा शिवजी को मनाना  »  श्लोक 50
 
 
श्लोक  4.6.50 
कुर्वध्वरस्योद्धरणं हतस्य भो:
त्वयासमाप्तस्य मनो प्रजापते: ।
न यत्र भागं तव भागिनो ददु:
कुयाजिनो येन मखो निनीयते ॥ ५० ॥
 
शब्दार्थ
कुरु—करो; अध्वरस्य—यज्ञ का; उद्धरणम्—उद्धार, पूरा किया जाना; हतस्य—मारे हुए का; भो:—हे; त्वया—तुम्हारे द्वारा; असमाप्तस्य—अपूर्ण यज्ञ का; मनो—हे शिव; प्रजापते:—महाराज दक्ष का; —नहीं; यत्र—जहाँ; भागम्—भाग, हिस्सा; तव—तुम्हारा; भागिन:—भाग के पात्र; ददु:—नहीं दिया; कु-याजिन:—दुष्ट पुरोहितों ने; येन—दाता से; मख:—यज्ञ; निनीयते—फल पाता है ।.
 
अनुवाद
 
 हे शिव, आप यज्ञ का भाग पाने वाले हैं तथा फल प्रदान करने वाले हैं। दुष्ट पुरोहितों ने आपका भाग नहीं दिया, अत: आपने सर्वस्व ध्वंस कर दिया, जिससे यज्ञ अधूरा पड़ा है। अब आप जो आवश्यक हो, करें और अपना उचित भाग प्राप्त करें।
 
 
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