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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 6: ब्रह्मा द्वारा शिवजी को मनाना  »  श्लोक 51
 
 
श्लोक  4.6.51 
जीवताद्यजमानोऽयं प्रपद्येताक्षिणी भग: ।
भृगो: श्मश्रूणि रोहन्तु पूष्णो दन्ताश्च पूर्ववत् ॥ ५१ ॥
 
शब्दार्थ
जीवतात्—जी उठे; यजमान:—यज्ञकर्ता (दक्ष); अयम्—यह; प्रपद्येत—उसे वापस मिल जाय; अक्षिणी—नेत्र; भग:— भगदेव; भृगो:—भृगु मुनि की; श्मश्रूणि—मूँछें; रोहन्तु—पुन: उग आएं; पूष्ण:—पूषादेव के; दन्ता:—दन्त पंक्ति; —तथा; पूर्व-वत्—पहले की तरह ।.
 
अनुवाद
 
 हे भगवान्, आपकी कृपा से यज्ञ के कर्त्ता (राजा दक्ष) को पुन: जीवन दान मिले, भग को उसके नेत्र मिल जायँ, भृगु को उसकी मूँछें तथा पूषा को उसके दाँत मिल जाएँ।
 
 
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