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श्लोक  |
देवानां भग्नगात्राणामृत्विजां चायुधाश्मभि: ।
भवतानुगृहीतानामाशु मन्योऽस्त्वनातुरम् ॥ ५२ ॥ |
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शब्दार्थ |
देवानाम्—देवताओं के; भग्न-गात्राणाम्—क्षत-विक्षत अंग वाले; ऋत्विजाम्—पुरोहितों के; च—तथा; आयुध-अश्मभि:— हथियारों तथा पत्थरों से; भवता—आपके द्वारा; अनुगृहीतानाम्—कृपापात्र; आशु—शीघ्र; मन्यो—हे शिव (क्रुद्ध रूप में); अस्तु—हो; अनातुरम्—घावों का भरना ।. |
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अनुवाद |
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हे शिव, जिन देवताओं तथा पुरोहितों के अंग आपके सैनिकों द्वारा क्षत-विक्षत हो चुके हैं, वे आपकी कृपा से तुरन्त ठीक हो जाँय। |
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