यज्ञ भगवान् को प्रसन्न करने के लिए सम्पन्न किया गया उत्सव है। श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के द्वितीय अध्याय में उल्लेख है कि प्रत्येक व्यक्ति को यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि श्रीभगवान् उसके कार्य से प्रसन्न हैं या नहीं। अर्थात् हमारे कर्मों का उद्देश्य भगवान् को प्रसन्न करना होना चाहिए। जिस प्रकार कार्यालय में कार्यकर्त्ताओं का यह कर्तव्य है कि वे इस बात को ध्यान में रखें कि मालिक या स्वामी प्रसन्न हुआ है या नहीं, उसी प्रकार हम सबका यह कर्तव्य है कि हम यह देखें कि भगवान् हमारे कार्यों से प्रसन्न तो हैं। परमेश्वर को प्रसन्न करने वाले कर्मों का आदेश वैदिक साहित्य में है और ऐसे कर्मों का सम्पन्न होना यज्ञ कहलाता है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के हित में कर्म करना यज्ञ कहलाता है। मनुष्य को यह भली-भाँति समझ लेना चाहिए कि यज्ञ के अतिरिक्त जो भी कर्म किया जाता है, वह भवबन्धन का कारण होता है। इसकी व्याख्या भगवद्गीता (३.९) में की गई है—यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:। कर्म-बन्धन का अर्थ है कि यदि हम भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने के लिए कार्य नहीं करते तो हमारे कार्य का फल हमें बाँध लेगा। मनुष्य को चाहिए कि अपनी इन्द्रियतुष्टि के लिए कार्य न करे। हर एक को ईश्वर की तुष्टि के लिए कार्य करना चाहिए। यही यज्ञ कहलाता है। दक्ष द्वारा यज्ञ की समाप्ति पर सभी देवता प्रसाद की आशा कर रहे थे। भगवान् शिव भी एक देवता हैं, अत: उनको भी यज्ञ का प्रसाद मिलना चाहिए था। किन्तु दक्ष ने द्वेष-वश न तो शिव को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया और न यज्ञ के बाद उनका भाग उन्हें दिया। किन्तु शिव के अनुचरों द्वारा यज्ञस्थल का विध्वंस हो जाने पर ब्रह्मा ने शिव को शान्त किया और उनका प्रसाद भाग दिलाने का आश्वासन दिया। इस तरह उनके अनुचरों ने जो भी तहस-नहस किया था, उसे ठीक करने के लिए उनसे प्रार्थना की गई।
भगवद्गीता में (३.११) कहा गया है कि जब कोई यज्ञ करता है, तो सभी देवता तुष्ट हो जाते हैं। चूँकि देवता यज्ञ का प्रसाद चाहते हैं, अत: यज्ञ अवश्य किया जाना चाहिए। जो इन्द्रिय-सुख तथा भौतिक कार्यों में लिप्त रहते हैं, उन्हें यज्ञ अवश्य करना चाहिए, अन्यथा वे दण्डित होंगे। इस प्रकार प्रजापति दक्ष जब यज्ञ कर रहा था, तो शिव को अपना भाग मिलने की आशा थी। किन्तु चूँकि शिव आमंत्रित नहीं किये गये, अत: उत्पात हुआ। किन्तु ब्रह्मा के मध्यस्थ बनने से सब कुछ ठीक हो गया।
यज्ञ को सम्पन्न करना अत्यन्त कठिन कार्य है, क्योंकि समस्त देवताओं को यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित करना होता है। इस कलियुग में न तो इतने खर्चीले यज्ञ कर पाना सम्भव है और न देवताओं को इसमें भाग लेने के लिए आमंत्रित कर पाना सम्भव है। अत: इस युग में यज्ञै संकीर्तन प्रायैर्यजन्ति हि सुमेधस: (भागवत ११.५.३२) संकीर्तन-यज्ञ की संस्तुति की जाती है। जो बुद्धिमान हैं उन्हें समझना चाहिए कि कलियुग में वैदिक यज्ञ कर पाना सम्भव नहीं। किन्तु जब तक देवताओं को प्रसन्न नहीं कर लिया जाता, तब तक नियमित ऋतु-कार्य, यथा वर्षा, नहीं होती। प्रत्येक वस्तु देवताओं द्वारा नियंत्रित है। ऐसी अवस्था में, इस युग में सामाजिक शान्ति तथा सम्पन्नता बनाये रखने के लिए बुद्धिमान व्यक्तियों को संकीर्तन-यज्ञ करना चाहिए, जिसमें हरे-कृष्ण मंत्र का कीर्तन हो। मनुष्य को चाहिए कि लोगों को बुलाकर हरे कृष्ण का कीर्तन करे और प्रसाद बाँटे। इस यज्ञ से समस्त देवता प्रसन्न होंगे और संसार में शान्ति तथा सम्पन्नता आएगी। वैदिक अनुष्ठानों के करने में दूसरी कठिनाई यह है कि हजारों देवताओं में से यदि एक भी देवता अप्रसन्न रह जाता है, जैसाकि दक्ष से शिव अप्रसन्न हो गए, तो संकट उत्पन्न हो जाता है। किन्तु इस युग में यज्ञ करना सरल बन चुका है। हरे- कृष्ण कीर्तन करके तथा कृष्ण को प्रसन्न करके मनुष्य समस्त देवताओं को स्वत: प्रसन्न कर सकता है।