भवस्तवाय कृतधीर्नाशक्नोदनुरागत: ।
औत्कण्ठ्याद्बाष्पकलया सम्परेतां सुतां स्मरन् ॥ ११ ॥
शब्दार्थ
भव-स्तवाय—शिव की स्तुति के लिए; कृत-धी:—कृतसंकल्प; न—नहीं ही; अशक्नोत्—समर्थ था; अनुरागत:—विचार से; औत्कण्ठ्यात्—उत्कंठा से; बाष्प-कलया—आँखों में आँसू भर कर; सम्परेताम्—मृत; सुताम्—पुत्री; स्मरन्—स्मरण करते हुए ।.
अनुवाद
राजा दक्ष ने शिव की स्तुति करनी चाही, किन्तु अपनी पुत्री सती की दुर्भाग्यपूर्ण-मृत्यू का स्मरण हो आने से उसके नेत्र आँसुओं से भर आये और शोक से उसकी वाणी अवरुद्ध हो गई। वह कुछ भी न कह सका।
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