श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 7: दक्ष द्वारा यज्ञ सम्पन्न करना  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  4.7.14 
विद्यातपोव्रतधरान् मुखत: स्म विप्रान्
ब्रह्मात्मतत्त्वमवितुं प्रथमं त्वमस्राक् ।
तद्ब्राह्मणान् परम सर्वविपत्सु पासि
पाल: पशूनिव विभो प्रगृहीतदण्ड: ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
विद्या—विद्या; तप:—तपस्या; व्रत—व्रत; धरान्—अनुचर; मुखत:—मुख से; स्म—था; विप्रान्—ब्राह्मण; ब्रह्मा—ब्रह्मा; आत्म-तत्त्वम्—आत्म-साक्षात्कार; अवितुम्—फैलाने के लिए; प्रथमम्—पहले; त्वम्—तुम; अस्राक्—उत्पन्न किया; तत्— अत:; ब्राह्मणान्—ब्राह्मणों की; परम—हे महान; सर्व—सभी; विपत्सु—संकट में; पासि—रक्षा करते हो; पाल:—रक्षक की तरह; पशून्—पशु; इव—समान; विभो—हे महान; प्रगृहीत—हाथ में धारण किये; दण्ड:—डंडा ।.
 
अनुवाद
 
 हे महान् तथा शक्तिमान शिव, विद्या, तप, व्रत तथा आत्म-साक्षात्कार के लिए ब्राह्मणों की रक्षा करने के हेतु ब्रह्मा के मुख से सर्वप्रथम आपकी उत्पत्ति हुई थी। आप ब्राह्मणों के पालक बनकर उनके द्वारा आचरित अनुष्ठानों की सदैव रक्षा करते हैं, जिस प्रकार ग्वाला गायों की रखवाली के लिए अपने हाथ में दण्ड धारण किये रहता है।
 
तात्पर्य
 समाज में भले ही मनुष्य का सामाजिक पद कुछ भी हो, विशिष्ट मन तथा इन्द्रियों को वश में करने के लिए वैदिक शास्त्रों में वर्णित अनुष्ठानों को सम्पन्न करना है। शिव को पशुपति कहा जाता है क्योंकि वे जीवात्माओं की उन्नत चेतनाओं में रक्षा करते हैं, जिससे वे वर्ण तथा आश्रम की वैदिक पद्धति का अनुसरण कर सकें। पशु शब्द से पशु तथा मनुष्य दोनों का बोध होता है। यह कहा जाता है कि शिवजी पशुओं तथा पाशविक वृत्ति वाली जीवात्माओं की, जो आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत नहीं हैं, सदा सदैव रक्षा करने में रुचि दिखाते हैं। यह भी कहा गया है कि ब्राह्मणों की उत्पत्ति परमेश्वर के मुख से हुई। हमें यह सदा स्मरण रखना होगा कि शिव को भगवान् विष्णु के प्रतिनिधि के रूप में सम्बोधित किया जाता है। वैदिक साहित्य में वर्णित है कि ब्राह्मण विष्णु के विराट रूप के मुख से, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य उदर या कटिभाग से तथा शूद्र पाँवों से उत्पन्न हुए। शरीर की संरचना में सिर का प्रमुख महत्त्व रहता है। ब्राह्मण भगवान् के मुख से उत्पन्न हुए जिससे विष्णु की पूजा हेतु दान स्वीकार कर सकें और वैदिक ज्ञान का प्रसार कर सकें। शिव को पशुपति कहा जाता है। वे ब्राह्मणों तथा अन्य जीवात्माओं की रक्षा अब्राह्मणों या आत्म-साक्षात्कार के विरोधी असंस्कृत व्यक्तियों के हमलों से करते रहते हैं।

इस शब्द की दूसरी विशेषता यह है कि जो व्यक्ति वेदों के केवल अनुष्ठान सम्बन्धी अंश में लिप्त रहते हैं और भगवान् की स्थिति को नहीं समझ पाते, वे पशुओं से किसी प्रकार भी अधिक उन्नत नहीं है। श्रीमद्भागवत के प्रारम्भ में इसकी पुष्टि की गई है कि कोई भले ही वेदवर्णित अनुष्ठानों का पालन क्यों न करे, किन्तु यदि वह कृष्ण-चेतना विकसित नहीं करता तो वैदिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करने में लगा उसका सारा श्रम समय का अपव्यय है। दक्ष के यज्ञ को विध्वंस करने के पीछे शिव का मन्तव्य उसे दण्डित करना था, क्योंकि उसने उनकी (शिव की) उपेक्षा करके महान् अपराध किया था। शिव द्वारा दिया गया दण्ड उस ग्वाले द्वारा दिये जाने वाले दण्ड के समान है, जो अपने पशुओं को डराने के लिए लाठी रखता है। यह आम कहावत है कि पशुओं की रक्षा के लिए लाठी चाहिए, क्योंकि पशुओं में विवेक और तर्कशक्ति नहीं होती। जब तक लाठी नहीं होगी वे आज्ञापालन नहीं करेंगे। पाशविक वृत्ति वाले मनुष्यों के लिए बल-प्रयोग की आवश्यकता पड़ती है, किन्तु जो उन्नत हैं, वे तर्कों तथा शास्त्रीय प्रमाणों से मान जाते हैं। जो लोग भक्ति में अथवा कृष्ण-चेतना प्रगति किये बिना वैदिक अनुष्ठानों का पालन-मात्र करते हैं, वे पशुतुल्य हैं और शिवजी पर ऐसे लोगों की रक्षा का भार है, जिससे वे कभी-कभी उन्हें दण्डित करते हैं, जिस प्रकार उन्होंने दक्ष को दण्डित किया।

 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥